वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1089
From जैनकोष
चित्तमेकं न शक्नोति जेतुं स्वातंत्र्यवर्ति य:।
ध्यानवार्तां ब्रुवन मूढ: स किं लोके न लज्जते।।1089।।
चित्तविजय में असमर्थ पुरुषों द्वारा ध्यानवार्ता किये जाने की हास्यास्पदता― जो पुरुष स्वतंत्रता से वर्तने वाले इस चित्त को जीतने में समर्थ नहीं है वह यदि ध्यान की बात करे में ध्यानी हूँ, यों ध्यान की बात करें तो वह लज्जित नहीं होता। चित्त तो वश में है नहीं और ध्यान की बड़ी ऊँची बात करे तो यह शोभा की बात नहीं है। सर्वप्रथम चित्त वश में हो तो ध्यान का काम बन सकता है। चित्त हमारा वश में हो, ज्यों ही चित्त ने कोई बात चाही त्यों ही लो अब वह नहीं करना। ऐसे होते हैं गृहस्थ। मन ने इच्छा की कि आज अमुक चीज खाना है तो तुरंत उसी चीज का त्याग कर दिया। क्यों ऐसा मन ने सोचा? जो मिल गया घर में समय पर उसी में ही पूर्ति हो जायगी, क्यों विकल्प करें? ज्यों ही चाह उठी उस चाह के विरुद्ध अपनी परिणति बना ली। जिस प्रकार भी हो इस मन को वश करना चाहिए।कितने ही लोगों को देखा होगा क्रोध आया और इतना तीव्र आया कि देखने वालों को तो ऐसा लगता कि इसका जीवन भर यह बैर चलेगा, लेकिन वह क्षण भर बाद में ही हँसने लगता, शांत हो जाता और उसका ही उपकार करने लगता है। और कुछ लोग ऐसे होते कि क्रोध आया तो उसको जीवन भर बनाये रहेंगे और उसका पूरा बदला लेने की चेष्टा करते रहेंगे। तो ऐसा बल होता हैज्ञान में कि कभी भले ही कषाय उत्पन्न होपर क्षण भर बाद ही उस कषाय को शांत कर लेते हैं। देखिये हम कषाय करें तो दुनिया उसे सह न सकेगी। कषाय छोड़कर समता रहे तो दुनिया भली प्रकार देख भी सकेगी। यह सबकी बात है। कषाय ऐसी निपट बुरी चीज है कि दूसरे लोग इसे सह नहीं सकते और खुद भी सह नहीं सकते, मगर मोह ऐसा है, कि क्रोध, मान, माया, लोभ किए बिना यह रह नहीं पाता। तो आत्मा का अहित करने वाली दो ही चीजें हैं― विषय और कषाय। और इन दोनों की जड़है मोह। कुछ पता ही नहीं रहना कि दुनिया क्या है, में क्या हूँ, अपने और पराये का कुछ भान ही जब नहीं है तो वहाँ जो कषाय आया है वह प्रबल होगा ही। मगर अपने आपकी खोटी भावना से अपना अनर्थ होता है, दूसरे का अनर्थ नहीं होता। केवल कल्पनाएँही बनाना है। तो ऐसी कल्पनाएँ जगे कि प्रभु का स्मरण बना रहे, गुरुवों के गुण ग्रहण करने योग्य बने रहें, सर्व जीवों में समता परिणाम रखने का भाव बना रहे, ऐसी कल्पनाएँ बने। और उन कल्पनाओं में कोई तत्त्व नहीं है। तो आशापूर्ण हैं, खुद भी दु:खी हो रहे हैं और उस आशा की पूर्ति करने में जो चेष्टाएँ करेंगे, उन चेष्टाओं से अन्य लोग भी दु:खी होंगे। अपना श्रद्धान् सही है, अपना ज्ञान सही है, अपना आचरण निर्मल है तो इसके लिए जगत में अन्य-अन्य जीव भी लोकव्यवहार में शरण हो जायेंगे और खुद तो शरण होगा ही। इससे शांति प्राप्त करने के लिए अपने आपके श्रद्धान् ज्ञान आचरण का प्रयत्न करना चाहिए।