वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1090
From जैनकोष
यदसाध्यं तवोनिष्ठैर्मुनिभिर्वीतमत्सरै:।
तत्पदं प्राप्यते धीरैश्चित्तप्रसरबंधकै:।।1090।।
चित्तप्रसरबंधक पुरुषों द्वारा तपोनिष्ठजनासाध्य पद की भी प्राप्ति―जो योगीश्वर मन के फैलाव को रोक देते हैं अर्थात् चित्त की शुद्धि प्राप्त कर लेते हैं वे पुरुष जिस आनंदमय उत्कृष्ट पद को प्राप्त कर लेते हैं उस तब को बड़े-बड़े तपोनिष्ठ जो कि मत्सर आदिक गुणों से भी रहित हैं, फिर भी वे मुनीश्वर उस पद को प्राप्त नहीं कर पाते तो चित्त का फैलाव वे रोक नहीं सके। आत्मा की शुद्धि है कहाँ? एक चित्त वश गया। बाह्य पदार्थों की आशा का परित्याग किया और वहाँ उसे निराकुलता, समृद्धि अपने आपके स्वरूप में मग्नता ये सब बातें प्राप्त हो जाती हैं। कारण यह है कि आत्मा तो स्वभाव से आनंदधाम है। केवल हमारे उपयोग में जो बाह्य विषयों की आशा का कलंक आया है उसके कारण यह अपने आपमें बसे हुए सरस आनंद को प्राप्त नहीं कर पाता। तो इतनी बड़ी बात एक मन के फैलाव को रोक देने से प्राप्त होती है। कोई बड़े-बड़े सांसारिक कष्ट नहीं सह सकता। बड़े-बड़े तपश्चरण नहीं कर पाता, न करे, लेकिन जो एक केवल मन के रोकने भर की बात है, ज्ञान को सम्हालने भर की बात है, अपने आपको अपने ज्ञान को लाने भर की बात है उतनी बात यदि नहीं बन सकी तो फिर कुछ भी न बन सका। केवल एक ज्ञान द्वारा साध्य है। क्रोध, मान, माया, लोभ इन बैरियों को जीतना है। और दु:ख है केवल इन कषायों का। जीव को कषाय के सिवाय और क्या दु:ख है? बाह्यपदार्थों से दु:ख की परिणति आती नहीं। प्रत्येक परिस्थितिमें जितने भी क्लेश हैं वे सब अपने कषायभाव के हैं। कोई काम अति आवश्यक भी है पर उससे दु:ख नहीं है। दु:ख है उस काम विषयक विकल्प बनाने का। किसी वस्तुविषयक क्लेश के उठाने में लोग कहते हैं कि इसमें क्लेश उठाने की विवशता है लेकिन विवशता कुछ नहीं है। लोग पराधीनता मानते हैं पर तत्त्वत: तो वहाँ भी केवल अपने कषायों की विवशता है और उन विकल्पों से वे दु:ख भोगते हैं। तो केवल ज्ञानसाध्य है यह बात कि क्रोध, मान, माया, लोभ बैरी जीत लिए जायें और आत्मा शुद्ध आनंद के पद को प्राप्त कर ले।
परमानंदधाम लाभ के इच्छुक जनों को चित्तप्रसार के कर्तव्य का संदेश― परम आनंद के लाभार्थ चित्त का प्रसार रोकने का यत्न होना चाहिए। यह बात तब संभव है कि जब हमें ऐसे ज्ञान की दृष्टि का सुयोग बहुत काल मिले और जो चित्त का प्रसार रोकने के इच्छुक हैं, रोकते हैं। ऐसे प्राणियों की भी संगति अधिक मिले, हमारा उपयोग बदले तो चित्त का प्रसार रुक सकता है, वह ज्ञान से बदले, निकट में रहकर बदले, बदलेगा ज्ञान से ही पर बाह्यसाधन और कुछ भी रह जाय वह भी एक साधन बनता है पर केवल बाह्यतपश्चरण पद प्राप्त करना संभव है। आध्यात्मिक तपश्चरण होना चाहिए और आध्यात्मिक तपश्चरण यह है कि मन का संयम बने, विचार आया कोई खोटा, किसी पाप संबंधी कार्य करने का मन में विचार उठा तो उसे कतर देना, उस पर नियंत्रण करना, उसको किसी भी प्रकार डाल देना इस तरह का जो अंत: प्रयत्न कर सकता है वह पुरुष उस आनंदधाम को प्राप्त कर सकता है। जब कषायभाव रहता हे तो यह बात अति कठिन मालूम होती है। किंतु जब विवेक रहे, कषाय की मंदता रहे तो उसे स्वयं यह मार्ग मिलता है। अपने मन को वश करने का और अपने ज्ञानस्वरूप की ओर मुड़ने का उसे मार्ग स्वयं मिलता है, तब ही जानता है कि यह तो बहुत सुगम काम है। इसमें न किसी दूसरे मनुष्य की आधीनता होती है, न किसी बाहरी पदार्थ की आधीनता है। सुगम कार्य तब जँचता है जब इस मार्ग पर भी थोड़ा चलने लगते हैं तो मन का प्रसार रोकने से उत्तम बुद्धि की प्राप्ति होती है, इसी का नाम है मन की शुद्धि। इंद्रिय के विषयों में मन न लगे, इज्जत हो, पोजीशन बढ़े, कीर्ति बढ़े, मेरा नाम जाहिर हो, लोग मुझे समझें कि यह भी कोई खास पुरुष है। ये मन के विषय हैं। तो इंद्रिय और मन के विषयों में इस मन को न जोड़ें और मन चलित होता है तो इसे कुछ अच्छे कार्यों में लगा दें। जैसे दीन दुखियों का उपहार करना, प्रभु की भक्ति करना, तत्त्व का विज्ञान करना,संतों की उपासना करना आदिक जितने भी शुभोपयोग के कार्य हैं उन कार्यों में मन को लगा दें और प्रयत्न यह करें कि यह मन पूरी तरह से रुक जाय और में सहज ही अपने आपमें विश्राम पाकर अपने केवल स्वरूप की अनुभूति कर लूँ, ऐसा यत्न होना चाहिए। इस तरह की चित्तशुद्धि जिसमें होती है वह इस ज्ञानानंद के परम उत्कृष्ट धाम को प्राप्त कर लेता है।