वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1100
From जैनकोष
प्रशमयमसमाधध्यानविज्ञानहेतो, विनयनयविवेकोदारचारित्रशुद्धयै।
य इह जयति चेत: पन्नगदुर्निवारं, स खलु जगति योगि ज्ञातवंद्यो मुनींद्र:।।1100।।
चित्तमणी मुनींद्र की वंद्यनीयता― इस चित्तरूपी सर्प को जो योगीश्वर जीत लेते हैं वे बड़े-बड़े योगियों द्वारा भी वंदनीय है। इस चित्तपन्नक को किस लिये जीता जाता है कि जो नियम लिया है आजीवन उस यम की सिद्धि के लिये जो प्रशम की भावना बनाया है, मैं कषायों को उपशांत करके प्रशमभाव में रहूँगा, क्षमा आदिक रूप रहूँगा, ऐसी जो भावना बनाया है उस भावना की सिद्धि के लिये इस चित्तपन्नक को जीता जाता है। जो समाधि समता में कल्पनायें की हैं, भावना भाई है कि मैं रागद्वेष से दूर रहकर एक साम्यभाव रूप बर्तूंगा, उस समय की सिद्धि के लिये चित्तरूपी सर्प को जीतना ही चाहिए। इस प्रकार ध्यान विज्ञान की सिद्धि के लिए इस चित्तपन्नक को योगीजन जीता करते हैं, यह एक बहुत बड़ा आंतरिक तपश्चरण है। देखिये ये इंद्रियाँजगत के प्राणियों को विषयों में प्रवर्तन कराकर जीव को परेशानी में और बरबादी में डालती हैं और इस मन को विकट प्रोत्साहन देती हैं। और इन सभी इंद्रियों द्वारा बिगाड़ होता है और सभी इंद्रियों के विषय कठिन हैं, लेकिन रसना इंद्रिय और चक्षुइंद्रिय इन दो के विषय बड़े प्रबल हैं, और अन्य इंद्रियों के भी विषयों की प्रबलता में ये दोनों इंद्रियाँ सहकारी बनती हैं। बोलचाल करना, आँखों से निरखना ये अन्य इंद्रियों के भी प्रबलता के कारण बनते हैं। और कितनी सुविधा मिली है हम आपको कि और इंद्रियों पर तो ढक्कन नहीं मिले, आँख और मुख पर ढक्कन मिले हैं। अगर कोई चीज नहीं खाना है अथवाकुछ नहीं बोलना है तो लो झट मुख बंद कर लिया, पर इस मन के विषय को रोकने के लिए क्या ढक्कन है सो बतावो? कुछ भी तो ढक्कन नहीं है। कान को भी कोई ढक्कन नहीं मिले है, स्पर्शन इंद्रिय का भी कोई ढक्कन नहीं है, नाक का भी कोई ढक्कन नहीं है, पर आँखों के लिए एक कितनी अच्छी सुविधा मिली है। कहते भी हैं कि मूदहु आँखि कितहु कछ नाहीं। आँखें बंद कर ली, लो कहीं कुछ नहीं है। और देखो― मुख से दो काम किए जाते हैं― एक तो वचन बोलने का काम और एक स्वाद लेने का काम। ये दोनों ही काम बंद किए जा सकते हैं। ओंठ में ओंठ चिपका लिया तो ये दोनों ही काम बंद हो गए। इन दोनों इंद्रियों के ढक्कन बंद हो जायें फिर शेष इंद्रियों में प्रबलता रह ही नहीं सकती है। अब रही मन की बात। इसमें भी कोई ढक्कन नहीं है। यहाँ भी कौनसा उपाय किया जा सकता है? कानों के लिए भी कोई ढक्कन नहीं है। हाथ से कानों को बंद कर लिया, हाथ से नाक को भी बंद कर लिया, पर इस मन को किस तरह से मूँदे? न वहाँ हाथ जाये, न वहाँ किसी वस्तु का प्रवेश हो। यह भीतर ही भीतर मन-स्वच्छंद होकर लोक में यत्र तत्र घूमता रहता है। मन का ढक्कन क्या है, इसको रोकने की प्रक्रिया क्या है। तो देखिये यह विचार भी अरूपी है और वह है तत्त्वज्ञान। विवेक ऐसा लगता है संसार के अनेक प्राणियों को देखकर कि तत्त्वज्ञान और कल्याण की बात तो शास्त्रों की ही है, मात्र एक चर्चा करने भर की है, पर रोकना और मार्ग पर चलना यह तो संभव सा नहीं लगता। लेकिन ऐसा तो वे ही लोग सोचते है, जिनको सचमुच उस समय संभव सा नहीं है। जब हम यहाँ अनेक पुरुषों को देखते हैं― किसी में मोह अधिक है किसी में कम है, किसी में और कम है तो इस न्यूनता को निरखकर हम यह तो ज्ञान कर ही लेते हैं कि मोह में ऐसी कमियाँ दिख जाती हैं, तो जिसके मोह कम हो अथवा मोह न हो उसके तत्त्वज्ञान बनेगा ही। संयम आंतरिक तपश्चरण सब साधन उसके बन जायेंगे।
अज्ञानियों की चित्तविजय में कायरता― अपने आपको अज्ञानी जन ऐसा अनुभव करते हैंकि हम तो वह ही हैं जो संसार में रुलने वाले ये सब प्राणी हैं और अज्ञानीजन अपने आपको ऐसा अनुभव करते हैं कि इन रुलने वाले प्राणियों से विलक्षण एक प्रभुपरमेष्ठी की बिरादरी में हम एक छोटे भक्त हैं। एक बार कभी बड़ा भयंकर शुद्ध हो रहा था। मानो महाभारत का समय था। उस समय लोग प्रसन्नता से उस युद्ध प्रसंग में शामिल हो रहे थे। एक पुरुष अपनी स्त्री से बड़ी डींग मारता था कि हम बड़े बहादुर हैं। लोग प्राय: अपनी स्त्री के सामने बड़ी डींग मारा करते हैं क्योंकि वहीं उनका वश चलता है, अपनी बड़ी-बड़ी कलायें और अतिशय की बातें बताने का। तो स्त्री बोली कि यदि आज कल यह महाभारत का युद्ध हो रहा है, लोग खुशी-खुशी शामिल हो रहे हैं, यह देशसेवा है आप भी देशसेवा के लिए जाइये। तो वह बोला कि मैं चला तो जाऊँ पर वहाँ तो सब मरने की बातें हैं। वहाँ तो जिंदा तो नहीं आसकते। तो स्त्री ने उस पुरुष को समझाने के एक काम किया कि चना दलने की जो चक्की होती है उस पर चने दलने लगी और उस पति से कहा कि देखो इस चक्की में जो चने दले गए हैं इसमें से यह एक चना, यह दूसरा चना साबुत भी तो निकल आये हैं। तो ऐसे ही युद्ध में जितने लोग लड़ते हैं उनमें सभी नहीं मरते, कुछ बचकर भी आते हैं। तो वह पुरुष बोला कि देखो इन चनों में शामिल हैं जो चने चूरा हो गए हैं, हम उनमें से नहीं हैं जो चने साबुत निकल आये हैं। तो ऐसे ही अज्ञानीजन मानते है कि हम इन रुलते हुए प्राणियों में के हैं और ज्ञानीजन मानते हैं कि हम तो जो मोक्षमार्गी ज्ञानी अंतरात्मा पुरुष हैं उनमें के हैं। जो अपने को जिनमें का मानेगा उन जैसी ही प्रवृत्ति बनेगी। तभी ये संसार प्राणी मोहियों की भाँति ही रुलते चले जाते हैं और ज्ञानीजन प्रभु की ओर ही दृष्टि अधिकाधिक लगाया करते हैं। ये सब बातें तत्त्वज्ञान से संभव हैं। उस तत्त्वज्ञान द्वारा हम इस चित्तदैत्य को वश में करें। इस प्रकार इस परिच्छेद में मनशुद्धि की बात कही गई है, उससे हमें यह शिक्षा लेनी है कि हम अपने विवेक बल से इस मन पर विजय प्राप्त करें।