वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1131
From जैनकोष
रागद्वेषविषोद्यानं मोहवीजं जिनैर्मतम्।
अत: स एव नि:शेषदोषसेनानरेश्वर:।।1131।।
मोह की दोषसेनानरेश्वरना का कारण:― रागद्वेष रूपी विष का जो बागहे उस बागको पनपने के लिए उस बागके निर्माण के लिए बीज क्या डाला गया था? बीज के बिना ये वृक्ष उत्पन्न नहीं हो पाते। तो रागद्वेष के विषवृक्ष का जो एक खासा बागबन गया है इस प्राणी की भूमिका में तो उसमें बीज क्या डाला गया था? जिस बीज के रागद्वेष के अंकुर फूटें और रागद्वेष का प्रसार चले वह बीज है मोह का। मोह के बीज से ये अंकुर फूट गए, रागद्वेष का यह विधान बन गया। तो मोह का जो बीज है वह रागद्वेषरूप विष के उद्यान को बनाता है और इसी से यह मोह समस्त देशरूपी सेना का राजा बन गया है। मोह है तो सब दोष उसमें आ जाते हैं। स्व और पर का विवेक नहीं है, पर देह को आपा मान रहे हैं, इस प्रकार का मोह जहाँ है वहाँ विषयों में आसक्ति होगी, क्योंकि जिसमें मोह बने ऐसे शरीर का पोषण अथवा उस शरीर का उस रूप से वर्तन यह विषयों से बन रहा है। तो विषयों की आसक्ति का महादोष लग जायगा। जिसको अपने आपके सहजस्वभाव का भान नहीं ऐसे पुरुष विषयसाधनों में लग रहे हैं ना, तो उनमें विघ्न पद-पद हैं। तो उनमें विघ्न डालने वाले जीवों पर इसे क्रोध उत्पन्न होगा। तो उस क्रोध का भी बीज मोह रहा। जब आत्मस्वरूप का भान नहीं तो जो बाहरी-बाहरी बातें हैं, मान की, धनिक होने की, विश्व में नेतागिरी की उन्हें ही सब कुछ मान लेते हैं। उन्हें मायाचार भी करना पड़ता है, क्रोध भी करना पड़ता है पर तत्त्वज्ञानी पुरुष क्रोध, मान, माया, लोभ इन सभी से दूर है। जहाँ मोह है वहाँ सभी दोष आकर इकट्ठे हो जाते हैं। मोह का साम्राज्य सर्वत्र छाया है, अत: तत्त्वज्ञानी पुरुष इस मोह पर विजय प्राप्त कर समस्त दोषों की सेनाका मालिक बन जाता है। ईर्ष्या होना, दूसरों को विरोधी मानना ,बैरी समझना ये सब बातें इस मोहभाव में बन जाती हैं। ये सब रागद्वेष विभाव इस मोह के शासन में पनपते हैं। यह मुग्धभाव दूर हो और आत्मतत्त्व का ध्यान बने, धुन बने, मुझे अन्य कुछ न चाहिए, केवल मैं अपने स्वरूप का दर्शन बनाये रहूँ यह चाहिए। जिनकी आत्महित के लिए धुन बन जाती है उनका मार्ग, उनकी परिणति, अनुभवन सबसे विलक्षण होता है। अपनी उन्नति के लिए मोहभाव, अज्ञानभाव ये दूर कर देना चाहिए। फँसे रहने में न कोई तत्त्व अभी तक मिला और न आगे मिलेगा। यहाँ किसका विश्वास किया जाय?ये सब भिन्न भाव हैं। इस स्वभाव में यह में हूँ यह मेरा है, ऐसा भाव न बने तो वह पवित्र पुरुष है, शीघ्र अपना कल्याण कर सकता है। ध्यान के प्रकरण में ध्यान की साधना के लिए तैयारी करायी जा रही है कि हे आत्मन् ! तू अपने चित्त को, अपने आत्मा को ऐसा पवित्र बना जिससे तू सहज स्वभाव के निकट अधिक देर तक स्थित रह सके और इस ही के प्रताप से संसार के सर्वसंकट मिट जाते हैं। सो वह स्थिति आये कि यहाँ कुछ संकट का विकल्प ही न रहे। इसी उपाय से सर्वसंकटों से यह आत्मा छूट सकता है।