वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1140
From जैनकोष
मोहवन्हिमपाकर्तुं स्वीकर्तुं संयमश्रियम्।
छेत्तुं रागद्रुमोद्यानं समत्वमवलंबयतां।।1140।।
हे आत्मन् ! मोहरूपी अग्नि को बुझाने के लिए और संयमरूपी श्री को स्वीकार करने के लिए तथा रागरूपी फूलों के बाग का छेदन करने के लिए समतापरिणाम का आलंबन कर। इस श्लोक में तीन प्रयोजन बताये गए हैं― मोह की आग को शांत करना और संयम की श्री को स्वीकार करना और राग वृक्ष के बगीचे को काट देना। इन तीन प्रयोजनों के लिए समतापरिणाम का आलंबन लें और जहाँ रागद्वेष की मध्यस्थता हो जाती है तो इनमें से किसी का पक्ष नहीं रहता है। अपने को नि:संग अनुभव करना है। उस स्थिति में मोह नहीं है और सच्चा संयमन जगा है, और रागादिक का पता ही नहीं है, इन तीन प्रयोजनों में जो इनका क्रम रखा है उसमें भी मर्म है। पहिले मोह को दूर करने की बात कहीं, फिर संयम के पालन की बात कही, फिर राग को निर्मूल करने की बात कही। इसका यह क्रम है और पूर्व-पूर्व कारण है और अगला-अगला कार्य है। मोह दूर किए बिना शांति के मार्ग पर चलने का कोई उपाय ही नहीं रहता। सर्वप्रथम मोह दूर करना है। यह मोह दूर होता है तत्त्वज्ञान से। जब ज्ञान से हम निरखते हैं यह दरी है, यह चौकी है, फिर कोई बहका सकता क्या कि यह चौकी नहीं है? घड़ियाल है, यह दरी नहीं हे किंतु संगमरमर है। कोई यों बहका देगा क्या? ज्ञान में आ गया, आ गयी चीज। तो बस ऐसे ही ज्ञान में आने भर की ही बात है, मोह दूर हो गया। ज्ञान में आ जाय कि मेरा वह ज्ञानस्वरूप इस शरीर से भी न्यारा, अन्य सब बवंडरों से भी दूर केवल वह ज्ञानस्वभाव है वह मैं हूँ। शेष सब मैं नहीं हूँ। इस प्रकार के ज्ञानभर की बात है। आ जाय ज्ञान ऐसा तो फिर इसे कोई बहका तो न सकेगा। क्या कि आत्मा नहीं है यह बाहरी पदार्थ मात्र है अथवा यह भी माया ही है, इंद्रजाल कि इसका आधार कुछ नहीं है और ये हो गए हैं ऐसे विस्तार में। हे आत्मतत्त्व, उसका हो गया परिचय, फिर बहकायेगा कौन? फिर श्रम नहीं आता।
जब श्रम न आया, यथार्थ ज्ञान बना तो मोह तो दूर हो ही गया, चाहे राग कितना ही रहे, न छोड सके, न रह सके राग बिल्कुल, लेकिन मोह नहीं है। मोह का संबंध अज्ञान से है। अज्ञान मिटे जड़ से वहाँ मोह नहीं ठहर सकता। देख लीजिए कितना सस्ता काम है? जैसे आँखें खोली और सब चीजें नजर आयी। जो आया नजर उसे वही मान लिया। ऐसा कर ही रहे हैं। इसमें क्या जोर पड़ा? यह तो एक सहज काम सा है। काम भी क्या है? होता ही हे ऐसा। तो ऐसे ही मैं क्या कहूँ, ये सब क्या हैं, सही परिचय हो जाय, बस मोह समाप्त हुआ। तो सर्वप्रथम प्रगतिपथ में चलने के लिए मोह को दूर करने की बात चलती है। किसी भी पीड़ा को मेटने के लिए बाह्यविषयों के संचय का श्रम किया जाता है। बजाय इसके यदि अपने आपमें इस भावना को दृढ़ बना लें तो यह रागभाव दूर हो जाय, बस यही मेरी कमाई है। इसी को ही करना है। ऐसा अपने में कार्य-क्रम बने और उसके लिए ही उद्यमी रहें तो यह उपाय शांति का है। तत्त्वज्ञान की महिमा है। काम तो सब होते ही हैं, हो ही रहे हैं। कहीं हमारी कल्पना से, हमारी चिंता से, शोक से, आसक्ति से कोई बाह्य में कार्य बना क्या? नियम तो नहीं बन जाता कुछ। वह काकतालीय न्याय है। जैसे किसी ताड़ के बड़े वृक्ष के नीचे से कोई कौवा उड़कर जा रहा था। उसी समय उस ताड़ से कोई फल गिरा तो लोग कहते कि इस फल को उस कौवा ने गिराया या नीचे कौवा उड़ रहा था और कुछ ऐसा बानक बन गया कि वह गिरने वाला फल कौवा की चोंच में आ गया तो यह बात हर समय तो न बन जायगी।
किसी अंधे को कहीं चलते हुए रास्ते में किसी पत्थर से ठोकर लग जाय और वह उसे खोद दे, उसमें उसे अशर्फियों का हंडा मिल जाय तो क्या यह नियम बन गया कि सभी अंधों को यों धन मिल जाय? कोई सोचे कि आँखों में पट्टी बांधकर अंधे बनकर चलें, किसी जगह पैर की ठोकर मारकर खोदें और अशर्फियों का हंडा मिल ही जाय सो तो बात नहीं है। यदि काकतालीय न्याय से ऐसा कदाचित हो जाय कि जो चाहता हो वही काम बने। जैसा जिसको परिणमना चाहिए वैसा ही बन जाय तो वह सब काकतालीय न्याय से हो गया पर उसका नियम कुछ नहीं। मोह में सोचते हैं ऐसा कि हमारे तो ऐसी सामर्थ्य है कि हम जो चाहते हैं तब वही बन जाता है लेकिन जब परखने बैठेंगे तो जैसे इच्छायें एक लाख की हुई दिन भर में, एक लाख इच्छायें तो हो ही जाती हैं, हम उसका अनुभव नहीं कर पाते, पर भीतर में सूक्ष्म निर्णय से देखें तो लाख इच्छायें हो ही जाती हैं। ऐसी छोटी-छोटी इच्छायें हैं जिन्हें हम ग्रहण भी नहीं कर पाते। हो गयी इच्छायें, पर उन इच्छावों से चारों कषायों की इच्छा फलीभूत होती है। तो वह बन गया बानक। अथवा यों समझिये कि जिसके करोड़ों की संपदा हे वह कहीं से हजार रुपये चाहे तो उसे कौनसी निधि मिल गई, कौनसा बड़ा काम हो गया। ऐसे ही यह आत्मविशुद्धि के पथ में बढ़ रहा था और उसके साथ पुण्य रस बहुत बढ़ा था उस स्थिति में बहुत छोटी सी बात चाह ली और हो भी गयी तो कौनसी बड़ी बात है?मोह करना व्यर्थ है। हमारे किये यहाँ कुछ होता नहीं। मोह को त्यागें, पदार्थ का यथार्थ विज्ञान बनावें। सबसे पहिले तो यह जरूरी है इसकी साधना होती है, फिर ऐसी स्थिति होती है कि वह संयम का आश्रय करें। उस संयम के ही प्रसाद से तीसरी बात बनेगी, रागभाव का निर्मूल कर देना। मोह दूर होने का उपाय तो है तत्त्वज्ञान और रागादिक विकारों के दूर करने का उपाय है संयम। सो मोह दूर करने के लिए संयमश्री पाने के लिए और रागादिक विकारों का बग़ीचा छेद काटकर ध्वस्त कर देने के लिए समता परिणाम का आलंबन करना चाहिए। तो यथार्थस्वरूप समझकर रागद्वेष को मिटायें और अपनी ओर आयें, यही है सच्ची आत्मदया। इसके प्रसाद से ही मुक्ति का लाभ है।