वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1172
From जैनकोष
दुष्प्रज्ञाबललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशया,विद्यंते प्रतिमंदिरं निजनिजस्वार्थोदिता देहिन:।
आनंदामृतसिंधुशीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मानलं,ये मुक्तेर्वदनेंदुवीक्षणपरास्ते संति द्वित्रा यदि।।1172।।
कहते हैं कि ऐसे प्राणी तो घर-घर मिलेंगे जो अज्ञान के बल से, वस्तु के स्वरूप के संबंध में कुछ भी नहीं जानते हैं। ऐसे जीव तो घर-घर हैं जो अज्ञान से ग्रस्त हैं, वस्तुस्वरूप का जिन्हें कुछ भान नहीं है। ज्ञानविज्ञान से सूने हैं, अपने-अपने स्वार्थ में लगे हुए हैं, जिनको जो विषयसाधन इष्ट हुआ वे उस ही साधन में लगे हुए हैं ऐसे प्राणी घर-घर में मौजूद हैं, किंतु ऐसे प्राणी कदाचित् दो तीन ही मिलेंगे जो आनंदरूपी अमृत के कणों से इस जन्मरूपी अग्नि को बुझा देते हैं और मोक्षमार्ग में बढ़ते जाते हैं। जो समता के अधिकारी है, किसी भी अन्य पदार्थ में मोह भाव नहीं लाते हैं ऐसे पुरुष बिरले ही मिलेंगे। यों समतापरिणाम के प्रकरण में समता का वर्णन किया। अब इसके बाद में ध्यान का वर्णन करते हैं।