वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1220
From जैनकोष
अनारतं निष्करुणस्वभाव: स्वभावत: क्रोधकषायदीप्त:।
मदोद्धत: पापमति: कुशील: स्यान्नास्तिको य: स हि रौद्रधामा।।1220।।
रौद्रध्यान उस पुरुष में बसा होता है जो निरंतर निर्दय स्वभाव वाला होता है। जिसका दयाहीन स्वभाव है उसके संग में रहने से अचानक ही जब चाहे बहुत कठिन विपदायें आ सकती हैं। देखिये कोई व्रत भी पाले और हृदय में दया न हो। दूसरे जीवों का दिल दु:खाये तो उसका रौद्र आशय कहा जायगा ना। कुछ त्यागी लोग ऐसे होते हैं कि जरा सी हरी घास पर नहीं चल सकते तो छोटी संकरी गंदी गली से चले जाते हैं। देखिये वहाँ कितना रौद्र आशय है उस त्यागी का। ऐसी-ऐसी छोटी-छोटी बातें कहाँ तक कहीं जायें? व्रत भी पालन करते जाते, पर दया से रहित स्वभाव हो तो उस व्यक्ति को दुर्गति सुगम है। कोई पुरुष दया का स्वभाव वाला है और व्रत नहीं भी पाल सकता, संयम नहीं धारण कर सकता, किंतु हृदय कोमल है, परोपकार के लिए चित्त चलता है ऐसा पुरुष स्वर्ग आदिक गतियों को शीघ्र पा लेता है। दया का बड़ा महत्त्व है, तभी दया को ही धर्म कहा गया हैं, लेकिन दया का अगर पूरा अर्थ किया जाय तो यह होगा कि अपने आप पर दया करना है, अपने आपको विषय कषायों से दूर करें, खोटे अभिप्राय न जग सकें, यों अपने आत्मप्रभु की रक्षा करना यही है आत्मदया।
जिसका दयारहित स्वभाव है उस पुरुष के रौद्रध्यान बसा करता है। जो स्वभाव से ही क्रोधकषाय से जला हुआ रहता है, क्रोध करने का स्वभाव ही बना रहा करता है ऐसे पुरुष के रौद्रध्यान बसा करता है, ऐसे पुरुष से बातें करने में भी लोग डरते हैं। यही डर लगा रहता है कि न जाने यह कैसा आग बबूला हो जाय? जिसे घमंड है अपने रूप पर, अपने ज्ञान पर, बल पर, इज्जत पर, जाति पर तथा कुल आदि पर, तो ऐसे पुरुष के रौद्रध्यान बसा रहता है। घमंडी पुरुष को तो अपना सम्मान चाहिए, अपने मान की पूर्ति चाहिए। उसमें चाहे मित्र का भी अपमान हो, किसी पर भी विपदा आये उसको न देखना, क्योंकि घमंड में, अहंकार में इतना बुरा फँसा है कि उसके निरंतर रौद्रध्यान रहा करता है। जो पाप बुद्धि वाला जीव अपने शील से चिगकर कुशील को धारण करता है वह पुरुष भी रौद्रध्यानी है। जो भी नास्तिक जन हैं वे भी सब रौद्रध्यानी होते हैं। कभी-कभी धर्म की चर्चा करते हुए में भी जो विद्वान है, जिसे बोलने की बड़ी कला याद है तो ऐसे ढंग से बोलता जाता है कि मर्म छिद जाय, ऐसी शैली से बात करता है वह है रौद्रआशय। अपने आपके हित की इच्छा होना और जगत के समस्त प्राणियों के हित की भावना होना यह बहुत ऊँचे भवतव्य की बात है। जो पुरुष ऐसे रौद्र आशय में रहते हैं उनके रौद्रध्यान होता रहता है। अब रौद्रध्यान हमारे कितना कब कैसे रहता है, इसकी परीक्षा करना चाहिये, खोज तो करनी चाहिए। शास्त्रों के सुनने और अध्ययन का फल यही है, प्रयोजन यह है कि हम अपने आपके हित के लिए निर्णय करें। यह शास्त्रोपदेश सुनने भर के लिए और बांचने भर के लिए नहीं है। बांचना और सुनना तो एक माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने प्रयोजन पर पहुँच सकते हैं। सुनकर, बांचकर यदि अपने प्रयोजन की सिद्धि न की तो उससे लाभ क्या हुआ? हमें शिक्षा लेना चाहिए कि खोटे ध्यानों से बचें और शुद्ध ध्यान से रहें। देखो― विशुद्ध ध्यान करके कहीं भी आपत्ति नहीं है, प्रसन्नता रहती है, और अशुद्ध भाव बनाने में तो अपने आपमें एक दु:साहस भी बनाना पड़ता और उसके साथ-साथ क्लेश भी भोगना पड़ता है। इस कारण अपने आपको सरलहृदयी बनाना चाहिए जिससे हम अपने आपमें विकल्पजाल न मचायें और शांत सुखी रह सकें। यह हिंसानंद नाम का रौद्रध्यान कहा है। दूसरे की हिंसा में आनंद मानना यह बहुत दुष्ट ध्यान है। इसे छोड़कर निर्मोह बनकर आत्मा के विशुद्ध ध्यान की ओर लगाना चाहिए।