वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1238
From जैनकोष
अनेकासत्यसंकल्पैर्य: प्रमोद: प्रजायते।
मृषानंदात्मकं रौद्रं तत्प्रणीतं पुरातनै:।।1238।।
इसी प्रकार ऐसे भी अनेक प्रकार से जो हर्ष किए जाते उसे भी महर्षि जनों ने रौद्रध्यान कहा है। अभी मित्रगोष्ठी में जब गप्पवाद होने लगता है तो वहाँ आपस में छींटाकंसी, एक दूसरे का उपहास, एक दूसरे को बेवकूफ बनाना इसमें हर्ष माना जाता है। होली के दिनों में जो खेल रचा जाता फाग करने का, कीचड़ उछालने का तो उसमें कीचड़, रंग, गुलाल आदि एक दूसरे पर डालकर लोग हर्ष मानते हैं। कोई मना भी करता है पर नहीं मानते हैं, और खुश होते जाते हैं, ये सब रौद्रध्यान हैं। रौद्रध्यान से यह जीव अब तक इस संसार में जन्म–मरण के चक्र लगाता आ रहा है। कुछ उसमें परिवर्तन करना चाहिए। जगत में कौनसा स्थान ऐसा है कि जहाँ हम अपनी साज सामान बना लें कि कहीं भी कुछ नहीं है। अपने आपका तो अपना परिणाम ही रक्षक है। दूसरा कोई रक्षा करने वाला नहीं है। किसी भी पुरुष का हम अनिष्ट चिंतन न करें, कैसा ही कुछ हो, उपद्रव भी आया हो किसी दूसरे के द्वारा तो आया है उदय है कर्म का, बन गया, ऐसा मानकर उपद्रव भी सह लें, परंतु किसी पुरुष का स्वप्न में भी अनिष्ट चिंतन न करें, ऐसा गंभीर हृदय होना चाहिए। इसका परिणाम चाहे इस लोक में न दिखे किंतु आगे अवश्य अच्छा परिणाम मिलेगा। धर्म का, सुख शांति का वातावरण मिलेगा। सब जीव सुखी हों ऐसी भावना में ही समय बितायें। ये सब बातें आगे जब धर्मध्यान का प्रकरण चलेगा वहाँ विस्तारपूर्वक आचार्यदेव वर्णन करेंगे, पर इस आर्तध्यान रौद्रध्यान के प्रकरण में हमें यह शिक्षण लेना चाहिए कि हे प्रभो ! मुझमें वह सामर्थ्य प्रकट हो कि मैं सबके उपद्रव तो सह लूँ पर किसी का बुरा न विचारूं। प्रभु की भक्ति करते समय लोग यह खूब प्रार्थना करते हैं कि हे नाथ ! मुझ पर कभी कोई विपत्ति न आये पर प्रभु से ऐसा मांगने से काम कुछ नहीं बनता है। जब विपदा आने को होती है तो आती ही है। प्रभु से तो ऐसी प्रार्थना कीजिए कि हे प्रभो ! मुझमें ऐसा बल प्रकट हो कि सारे उपद्रव और विपदावों को मैं हँस खेलकर सह लूँ। ऐसी भावना बनायें तो इससे कुछ लाभ भी है। विपदावों से बचने की प्रार्थना करने में लाभ कुछ नहीं है, क्योंकि वह एक कायरता भाव है और जब जो विपदा उदय में आने को है वह आती ही है। उससे तत्त्व कुछ नहीं निकलता। और यह ध्यान करें कि हे नाथ ! मुझमें ऐसा बल आये कि समस्त विपदाओं को मैं समता से सहन कर लूँ तो इसमें लाभ यों है कि कुछ तो अपने आपके बल बढ़ाने पर दृष्टि जगी। और दूसरी बात प्रभु से मांगी गई वह बात मुझमें ही मिल सकती है, इस कारण विपदा में धीर रह सकूँ ऐसी प्रार्थना प्रभु से करें तो इससे लाभ है। जो विपदा से बचने की प्रभु से प्रार्थना करते हैं वह अज्ञानता का काम है। अज्ञानी को तो जगह-जगह विपदा है तो भावना ऐसी बने कि मुझ पर कितने ही उपद्रव आयें पर मैं उनसे डरकर अपने शांतिपथ से विचलित न हो सकूँ, ऐसी भावना लाभकारी है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान में समय गुजारना, यह कल्याणकारी उपाय नहीं है।