वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1272
From जैनकोष
क्रोधविद्धेषु सत्त्वेषु निस्त्रिंशक्रूरकर्मसु।
मधुमांससुरांयस्त्रीलुब्धेष्वत्यंतपापिषु।।1272।।
देवागमयतिव्रातनिंदकेष्वात्मशंसिषु।
नास्तिकेषु च माध्यस्थ्यं यत्सोपेक्षा प्रकीर्त्तिता।।1273।।
अब माध्यस्थ भावना कह रहे हैं। जो पुरुष विपरीत वृत्ति वाले हैं उनमें उपेक्षा भाव रखना सो माध्यस्थ भाव है। जो पुरुष क्रोध से विद्ध हों, क्रोधी हों उनके प्रति न राग भाव रखना, क्योंकि क्रोधी पुरुष से यदि अनुराग रखा तो क्रोधी के राग का भी फल अच्छा न होगा। वह क्रोधी पुरुष उस राग करने वाले पर भी झुंझला जाता है। जैसे जब कभी क्रोध आता है तो उस क्रोध में बच्चे से बड़ा प्रेम करने वाली माँ भी उस बच्चे को पटक देती है, ऐसे ही क्रोधी पुरुष के द्वारा भी उससे राग करने वाले का अनर्थ हो जाता है। कोई लड़ रहा हो दूसरे से और यह जानकर कि यह जो क्रोधी पुरुष है, लड़ रहा है, मार खा जायगा― इस प्रेम से अगर कोई उसे बचाने पहुँच जाय तो वह क्रोधी उसी से झगड़ने लगता है। तो यह तो एक साधारण सी बात है, पर नीति यह कहती है कि जिसके क्रोध करने का स्वभाव पड़ गया है ऐसे पुरुष से राग करके भी लाभ नहीं और द्वेष करने में भी लाभ नहीं। वहाँ उपेक्षाभाव धारण करना चाहिए। जो पुरुष निर्दय और क्रूर कर्म करने वाले हैं उन पुरुषों में भी उपेक्षाभाव रखने से ही लाभ है। राग का प्रयोजन क्या, और द्वेष करके आपत्ति उठाई गई तो उससे फायदा क्या? तो ऐसे निर्दय क्रूर खोटे कर्म करने वालों से रागद्वेष न करके उपेक्षा भाव करना सो माध्यस्थ भावना है। जो लोग मच्छ माँस का भक्षण करते हैं, परस्त्री में लुब्ध हैं, अत्यंत पापी हैं, व्यसनी हैं ऐसे पुरुषों से भी रागद्वेष न करके माध्यस्थभाव रखना सो माध्यस्थ भावना है।
जो पुरुष देव, शास्त्र, गुरु की निंदा करने वाले हो और अपने आपकी प्रशंसा करने वाले हों उनमें भी उपेक्षाभाव रखना चाहिए। जो पुरुष देव, शास्त्र, गुरु की निंदा कर सकता है ऐसे पुरुषों में राग करने से प्रयोजन क्या और वे क्रूर चित्त वाले होते हैं अतएव उनसे द्वेष करने से, बैर लादने से भी लाभ क्या? जो तत्त्वज्ञानी पुरुष हैं उनका ध्यान आत्महित का रहता है और आत्महित की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को अपने आत्मलाभ से ही प्रयोजन है। शुद्ध ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व का उपयोग बसना इसका नाम है आत्मलाभ। वे दूसरों जीवों की चेष्टा में राग अथवा द्वेष नहीं करते। जो पुरुष अपनी प्रशंसा करने वाले हों गोष्ठी में, मंदिर में, जगह-जगह कहीं भी अपने आपकी अपने मुख से बड़ाई करने की आदत रखते हों उनसे राग करने का तो काम क्या? और द्वेष करके भी कोई अपने हित का प्रयोजन नहीं पाया जा सकता। ऐसे पुरुषों के प्रति भी रागद्वेष भाव न करके उपेक्षा करना सो माध्यस्थ भावना है। इसी प्रकार जो नैतिक जन हैं जो परलोक नहीं मानते, आत्मा का अस्तित्व नहीं मानते, परमात्मा को नहीं मानते। आदर्श क्या है? उत्कृष्ट तत्त्वज्ञान क्या है, आत्मा का अंतिम उत्थान का रूप क्या? इन बातों में जिनकी श्रद्धा बन जाय उल्टा इस ही कारण विषय कषायों में आसक्ति रहे ऐसे पुरुषों में उपेक्षाभाव रखना सो माध्यस्थ भावना है। ये चार प्रकार की भावनाएँ समता की साधना कराने वाली हैं। इन 4 में रहकर भी पुरुष सम बन जाता है। सब जीवों में मित्रता होना यह तो प्रकट समता है। दु:खी जीवों को देखकर करुणा भाव उत्पन्न होना यह भी समता का ही यत्न है। जैसे कोई पुरुष भूखा है उसे भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना, इनमें भी साम्य भावना है। प्रत्येक दुखियों को निरखकर करुणा भाव जगने का अर्थ यह है कि उसके साथ अपने आपके स्वरूप की तुलना में समता की और उस समता के प्रसाद से करुणाभाव जगा है। किसी दु:खी पशु को निरखकर करुणा इसी कारण तो जगती है कि अपने आपके चित्त में भी यह बात समा जाती है कि यही तो मेरा स्वरूप है, यही तो हम हैं, ऐसे ही तो हम हैं, हो सकते हैं ,होंगे, ऐसी उसके साथ समता की वृत्ति जगी तो यही करुणाभाव उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार प्रमोदभावना में गुणों को निरखकर जो एक हर्ष का भाव प्रकट होता है उससे यह मुक्ति में विकास करेगा। तो इन उपायों से वह गुणियों में समान बन जायगा, माध्यस्थ में तो शब्द ही बोलते हैं कि समता परिणाम कर रहा है। इस इन चार भावों में समता के बर्ताव की सीख मिली हुई है।