वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1277
From जैनकोष
योगनिद्रा स्थितिं धत्ते मोहनिद्रापसर्पति।
आसु सम्यक्प्रणीतासु स्यान्मुनेस्तत्त्वनिश्चय:।।1277।।
इन भावनाओं को जो भली प्रकार भाते हैं, अभ्यास करते हैं उन मनुष्यों के मोहनिद्रा तो नष्ट होती है और योगनिद्रा प्रकट होती है। जैसे मोहनिद्रा में किसी अन्य का भान नहीं रहता, जिस धुन का मोह हुआ केवल वह भान में रहता है इसी प्रकार ध्याननिद्रा में किसी भी परतत्त्व का ध्यान नहीं रहता। केवल एक विशुद्ध ज्ञान का अनुभव करने रूप आनंद ही लूटा जाता है। तो इन भावनाओं का फल बता रहे हैं कि मोह रहता नहीं और योगनिद्रा प्रकट होती है और इसी कारण उनके तत्त्व का यथार्थ निश्चय होता है।