वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1319
From जैनकोष
अप्रमत्त: सुसंस्थानो वज्रकायो वशी स्थिर:।
पूर्ववित्संवृतो धीरो ध्याता संपूर्णलक्षण:।।1319।।
अभी पहिले श्लोक में बताया है कि जो अंग पूर्वों का ध्याता हो वह शुद्ध ध्यान का वास्तविक दृष्टि में पात्र होता है। यहाँ अब यह बतला रहे हैं कि चाहे ज्ञान संपूर्ण न हो, श्रुत विकल हो अथवा शास्त्र का ज्ञान न हो वह भी यदि सम्यग्दृष्टि है, मिथ्यात्व से दूर है तो वह इस अपनी नीची श्रेणी में अपनी योग्यतानुसार इन सब साधनों को छोड़कर आत्मध्यान का पात्र होता है, ऐसा शास्त्र में कहा गया है। ध्यान है ज्ञान पर निर्भर। ज्ञान ही न हो आत्मा का तो ध्यान किसका करें? तो जो कम श्रुत का धारी हो वह पुरुष भी ध्यान का स्वामी तो है किंतु वह एक नीची श्रेणी के ध्यान का स्वामी माना गया है। ध्यानविशुद्धि हो तो यही सच्चे धर्म की कमाई है। और जिसका मन छल प्रपंचों से परिपूर्ण है उसके ध्यान की कहाँ सिद्धि है?