वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1333
From जैनकोष
किमयं लोष्ठनिष्पन्न: किं वा पुस्तप्रकल्पित:।
समीपस्थैरपि प्राय: प्राज्ञैर्ध्यानीति लक्ष्यते।।1333।।
जिन्होंने सिद्धांत का निर्णय किया है ऐसे मुनिजनों के ध्यान की सिद्धि के लिए, चित्त की स्थिरता के लिए, अंतरात्मा में उपयोग स्थिर बना रहे इसके लिए प्राणायाम की प्रशंसा की है। प्राणायाम श्वास को अंदर लेकर उसे अंदर बनाये रहना और फिर धीरे-धीरे नाक से छोड़ना इसका नाम है प्राणायाम। जिनका जितना अभ्यास होवे उतनी देर तक करते हैं। अनेक लोग घंटों तक प्राणायाम कर लेते हैं। सो प्राणायाम ध्यान की सिद्धि में साधन तो है, पर प्राणायाम कोई मुख्य साधन नहीं है। मुख्य साधन तो ज्ञान है। तत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो तो उस आत्मा को ध्यानसाधना में, मन की स्थिरता में प्राणायाम साधक बनता है, पर मुख्यता है ज्ञान की, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र की।