वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1334
From जैनकोष
सुनिर्णीतसुसिद्धांतै: प्राणायाम: प्रशस्यते।
मुनिभिर्ध्यानसिद्धयर्थं स्थैयार्थ चांतरात्मन:।।1334।।
इस कारण बुद्धिमानी से इस प्राणायाम को सीधा कुछ समझ लेना चाहिए, अन्यथा चित्त का वश करना थोड़ा भी शक्य नहीं है। एक तो जिसके तत्त्वज्ञान है वैराग्य जगा है, बाह्य विषयों में प्रीति नहीं है अपने अंतस्तत्त्व की ओर ही झुकाव रहता हे उनके प्राणायाम भी स्वयमेव बनता है। जैसे हम आप किसी एक ध्यान में लग जायें चाहे, वह दूकान का ध्यान हो या अन्य किसी व्यापार का हो, सांसारिक हो तो ध्यान में लगने से यह श्वास का आना-जाना जल्दी नहीं होता अर्थात् रुककर श्वास होता है। तो जो आत्मा के ध्यान में लग रहा हो, आत्मस्वरूप का यथार्थ ज्ञान चल रहा हो उसके प्राणायाम सुगम बन जाता है। जो अज्ञानी जन हैं वे तो विधि से प्राणायाम की सिद्धि करते है। श्वास को रोकना, फिर भरना ये सब अभ्यास करते हैं लेकिन ज्ञानी पुरुषों के जब कि एक आत्मस्वरूप की धुन बन जाती है तो प्राणायाम स्वयमेव बनता है तो प्राणायाम की भी साधना कुछ-कुछ होना चाहिए उससे चित्त स्थिर रहता है। पहिले तो रमणीक स्थान हो, फिर आसन पर विजय हो। किसी एक विशुद्ध आसन से बैठ सकें, फिर प्राणायाम की साधना हो तो इससे ध्यानसाधना में बहुत बल मिलता है। अब प्राणायाम किन विधियों से किया जाता है? उसका प्रारंभ करते हैं।