वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1336
From जैनकोष
त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृत: पूर्वसूरिभि:।
पूरक: कुंभकशचैव रेचकस्तदनंतरम्।।1336।।
ऐसे श्वास से जो 12 अंगुल दूर से हवा खींच सके इस रफ्तार से श्वास को लेना अथवा ऐसी शांत मुद्रा में श्वास का ग्रहण करना कि जिससे यह प्रतीति हो कि नासिका से श्वास ली जा रही है और सिर के बीच में जो तालू स्थान है उससे भी कुछ-कुछ ध्वनि आती रहती है। यों द्वादश अंगुल बाहर से, इसका नाम पूरक है। श्वास में पूर्वा की भी कुछ विधियाँ हैं। प्राणायाम की बात में जैसे बाईं नाक से श्वास को खींचना और फिर भीतर हवा का भरना, फिर दाहिनी नासिका छिद्र से हवा का निकालना, फिर दाहिनी नासिका से हवा का खींचना भरना, फिर बायें से निकालना। फिर दोनों से खींचना भरना और दोनों से निकालना। इसके अलावा और ऐसी स्वरित क्रियाएँ होती हैं । तो इससे प्रथम तो हृदय की शुद्धि होती है, शारीरिक शुद्धि होती है और शारीरिक शुद्धि के साथ संबंध है आत्मशुद्धि का। यदि कुछ तत्त्वज्ञान है, वैराग्य है, जैसे स्नान करने का गृहस्थ जनों को क्यों विधान है कि स्नान करने से शरीर में कुछ हल्कापन हो जाता है शरीर में हल्कापन होने की स्थिति में विशुद्ध ध्यान का अवसर होता है। जैसे किसी समय बालगंगाधर तिलक ने अपने भाषण में यह कहा था कि जो लोग मानते हैं कि गंगास्नान करने से मुक्ति होती है उसका मर्म क्या है? लोग तो उन शब्दों के पीछे पड़ गए, पर उसका मर्म यह है कि वह गंगाजल अनेक औषधियों के बीच से आता है, ठंडा होता है। वह जल मलशोधक है, उसके स्नान करने से शरीर में हल्कापन होता है, मन भी प्रसन्न रहता है और ऐसे समय में आत्मा का ध्यान बन जाता है, अतएव ध्यान में साधक वह गंगास्नान है। यह मर्म न जानकर लोग शब्दों को ही पकड़कर रह गए। तो जैसे गृहस्थजनों को स्नान करना एक मनशुद्धि का कारण बताया है ऐसे ही यह प्राणायाम की विधि भी मन की शुद्धि का कारण है। तो यहाँ पूरक प्राणायाम का विधान कहा गया है कि ऐसी मँद चाल से श्वास लेवें जिसमें द्वादशांग से हवा खींच सके। उसका नाम है पूरक।