वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1342
From जैनकोष
अत्राभ्यासं प्रयत्नेन प्रास्ततंद्र: प्रतिक्षणम्।
कुर्वन् योगी विजानाति यंत्रनाथस्य चेष्टितम्।।1342।।
इस पवन का अभ्यास बड़े यत्न से निष्प्रमाद होकर जो निरंतर करते हैं वे योगी जीव की समस्त चेष्टावों को जान लेते हैं। देखिये जीव में ज्ञान स्वभाव है और स्वभाव अपने हद में तो रहता है पर वह अपेक्षित नहीं होता। स्वभाव किसी दूसरे की अपेक्षा करके सदा बनाये, ऐसा नहीं होता। प्रत्येक पदार्थ में स्वभाव स्वरसत: होता है अथवा पदार्थ ही स्वभावमय है। स्वभाव कुछ पदार्थ से जुदी चीज नहीं है। यों ऐसे यत्न से मन रुकता है, उपयोग स्थिर होता है जिससे स्वयं ज्ञान का विकास होने लगता है। पवन के प्राणायाम बड़े यत्न से निष्प्रमाद होकर जो निरंतर करते हैं वे योगी जीव की समस्त चेष्टावों तो जानने लगते हैं। मन:पर्ययज्ञानी पुरुष तो प्रत्यक्ष दूसरे के मन की बात जान लेते हैं। वह है एक स्पष्ट प्रत्यक्षज्ञान। लेकिन यह प्राणायाम का साधक पुरुष भी हवा की साधना से जो शरीर में उसे विशुद्धि जगती है उसके प्रताप से वह यंत्रनाथ के मन की बात को जान लेता है। यंत्रनाथ का अर्थ है यह जीव। यंत्र मायने शरीर। ये देहधारी प्राणी इस शरीर यंत्र को लादे हुए जा रहे हैं, इस शरीर यंत्र के ये नाथ हैं और उन यंत्रनाथ के मन की बात को ये प्राणायाम के सिद्ध करने वाले पुरुष सुगमतया पहिचान लेते हैं। यों तो बहुत से अनुभवी पुरुष ऐसे हैं कि दूसरे मनुष्य का चेहरा निरखकर, उसकी चालगति देखकर उसके जीवन का वृत्तांत बता देते हैं। देखो अब यह हुआ और अब यह होगा। तो एक प्राणायाम में जो आत्मसाधना की है, शरीर की चेष्टा त्यागकर केवल एक चिदानंद धन आत्मतत्त्व में ही जो रमते हैं उन पुरुषों के ज्ञान का एक अतुल विकास होता है। यह भी लाभ लेते हैं। इसको क्या है, किस चिंता में है। यह आराम करना चाहता है अथवा नहीं, इस प्रसंग में इसका चित्त जमता है अथवा नहीं― ये सब बातें एक प्राणायाम के साधन से जान ली जाती हैं और फिर ध्यानसाधना से तो प्राणायाम की आवश्यकता है, चाहे वह सम्यक् हो जाय, चाहे उसके विधि मिलान से कुछ कार्य प्रयोग से सिद्धि हो जाय, पर प्राणायाम की साधना शरीर को भी लाभदायक है और आत्मा को भी लाभदायक है। अतएव इस ध्यान के प्रकरण में प्राणायाम का वर्णन करने वाला परिच्छेद चल रहा है। प्राणायाम का सही अर्थ तो प्राणों का आयाम करना है। प्राण है हवा, पवन―जैसे लोग कहते हैं कि खाने के बिना चल जाय, पानी के बिना भी चल जाय पर हवा के बिना नहीं चलता। जैसे दो दिन बिना खाने के चल जाय, एक दिन बिना पानी के चल जाय, पर हवा बिना तो एक दो घंटा भी नहीं चल पाते। अब उन सबका जो एक विशुद्ध प्रयोग है हवा का वह है प्राणायाम और प्राणायाम से आत्मा के उपयोग में बहुत सहयोग होता है। तो अभ्यास करने से प्रयत्न करने से इसका आलस्य दूर होता है और प्रतिक्षण यह जीव की अंतरंग भावना को परख लेता है। प्राणायाम का स्वयं पर भी तत्काल प्रभाव होता है और अनेक जानकारियाँ भी प्राणायाम की साधना करने वाले को हो जाती हैं। तो इस प्रकार योगियों को आचार्यदेव कह रहे हैं कि प्राणायाम की साधना भी बनाये रहो, उससे ध्यान की सिद्धि होगी।