वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1374
From जैनकोष
उदयश्चंद्रेण हित: सूर्येणास्तं प्रशस्यते वायो:।
रविणोदये तु शशिना शिवमस्तमनं सदा नृणाम्।।1374।।
चंद्रस्वर से श्वास का उदय होना शुभ है तब अस्त सूर्यस्वर से होना प्रशस्त कहा है। अब उन तिथियों का संबंध न रखकर सामान्यतया यह कहते हैं कि चंद्रस्वर से तो प्रकट होवेश्वास और सूर्यस्वर से अस्त हो और जब सूर्य को उदय हो तो चंद्रस्वर से अस्त होवे यह कल्याणकारी शुभ है। जैसे तिथि के हिसाब से बताया गया था कि इन दिनों में श्वास बाम नासिका से निकले तो शुभ है तो जहाँवाम स्वर से निकलने को कहा है तो उस दिन, दिन अस्त होते समय सूर्यस्वर से अर्थात् उसके विरुद्ध स्वर से अस्त होना चाहिए। इतना तो हर एक कोई अनुभव करने लगेगा कि जब मन प्रसन्न रहता है, शांति और संतोष में चित्त रहता है उस समय प्राय:स्वर बाई ओरसे निकलता होगा और जब क्षोभ है, क्रोध है, चलितपना है, चंचलता है, व्यग्रता है उन समयों में दाहिने स्वर से श्वास निकलती होगी। एक सामुद्रिक शास्त्र की तरह एक स्वरविज्ञान का भी प्रभाव है।सामूहिक शास्त्र में हस्तरेखायें तिल मसा आदि चिन्हों से जो परिज्ञान किया जाता है उसका आधार है सुंदरता। पुण्योदय से शरीर जैसा सुगम सुंदर होना चाहिए उस सुंदरता की रेखायें और अन्य-अन्य निशानों से उसका शुभ अशुभ बता दिया जाता है। तो स्वरविज्ञान में एक भावों के निमित्त से संबंध है। शांति और तृप्ति भावों से अवस्थित पुरुष के स्वर की क्या स्थिति होती है? यह सब स्वरविज्ञान के जाननहार योगी समझते हैं और वे फलित रूप में उसको इस प्रकार वर्णन कर रहे हैं।