वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 147
From जैनकोष
अणुप्रचयनिष्पन्नं शरीर मिदमडि्.नाम्।
उपयोगात्मकोऽत्यक्ष: शरीरी ज्ञानविग्रह:।।147।।
शरीर की मायारूपता―जीव का यह शरीर अणुओं के समूह से बना हुआ है। जैसे बालू के ढेर से बना हुआ कोई घर बूला हो तो वह असार जंचता है और जरा से धक्के में सब विघट जाता है उसही तरह यह शरीर है। परमाणुओं के समूह से बना है, असार है, स्वयं कुछ धनरूप नहीं है और जरा से प्रसंग में यह बिखर जाता है। इस प्राणी का यह शरीर जिस पर प्राणी बड़ा नाज करता है यह शरीर असार है। जब तक इस शरीर का मल शरीर में ढका रहता है तब तक यह सुहावना जंचता है और किसी भी जगह नाक से, मुख से, थूक लार कुछ भी मल व्यक्त हो जाय तब फिर इसका असारपना स्पष्ट जंचने लगता है। उसकी भी बात जाने दो, कोई यदि अपनी नाक में अंगुली डालकर नाक का मल निकालता है तो दूसरों को भी यह बात विदित हो जाती है कि इसमें इस प्रकार का मल है और इसे निकालता है। इतनी ही दृष्टि आने पर असारता जंचने लगती है। यह तो बना हुआ मिट्टी का पुतला जैसा है। मिट्टी का पुतला भी अच्छा उसमें हाड़, मांस, खून तो नहीं। यह बाहर से देखने में कुछ सुहावना जंच रहा है किंतु यह शरीर तो सर्व मलों का घर ही है।
नरदेह से लाभ उठाने का उपयोग―भैया ! उपयोग लगाने की बात है। मलवाले शरीर का भव ही हमारे कल्याण का एक बाह्य साधन बनता है। जिनका दिव्य शरीर है, हाड़ मांस से रहित है ऐसे दिव्य शरीर से कल्याण और उन्नति की बात नहीं बनती। ऐसा दिव्य शरीर है देवों का हम आपका शरीर अपवित्र है, बीच में ही हम आपकी मृत्यु हो जाती है, ये दो ऐब इसमें ऐसे हैं और तीसरा है इष्ट वियोग का ऐब। ये ऐब इसमें हैं, लेकिन ये ही ऐब इसके वैराग्य के खास सहायक बन जाते हैं। शरीर अशुचि है अतएव यह वैराग्य का कारण बनता है। बीच में जब चाहे मरण संभव है तब धर्म धारण करने की इसके उलायत बनती है। शीघ्र इस धर्म को धारण कर लो। यहाँ इष्टवियोग होता है तो यह भी सम्वेग और वैराग्य का कारण बनता है।
भेदभावना का उपयोग-जीवों का यह शरीर जैसा जो कुछ भी है उससे यह आत्मा अत्यंत विलक्षण है। शरीर जड़ है तो यह आत्मा उपयोगमय है। शरीर इंद्रियमय है, यह आत्मा अतींद्रिय है। शरीर भी अनेक पदार्थों के समूह से बना है। तो यह जीव केवल अपने स्वरूप को बनाता है, इतना अत्यंत विलक्षण होकर भी शरीर और जीव की यह अनिष्ट मित्रता यह अनिष्ट घनाश्लेष इस जीव को ऐसा दु:ख के लिए लग गया है कि जिसके कारण यह अनादि से अब तक ऐसे ही क्लेशों में पड़ा चला आ रहा है। हम शरीर को अन्य समझें, अपने को उससे जुदा समझें और शरीर से उपेक्षा परिणाम रख सकें और अपने आपकी ओर रुचि कर सकें तो ऐसी वृत्ति से ही हम आपका यह दुर्लभ नर-जीवन सफल है, ऐसा अपना निर्णय रखिए।