वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 148
From जैनकोष
अन्यत्वं किं न पश्यंति जडा जन्मग्रहार्दिता:।
यज्जन्ममृत्युसंपाते सर्वेणापि प्रतीयते।।148।।
सर्वविदित अन्यपना―यद्यपि यह शरीर और आत्मा परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं तो इस संसाररूपी पिशाच से पीडित यह मोही प्राणी क्यों नहीं देखता है कि यह शरीर अन्य है और मैं उससे अत्यंत विविक्त हूँ। यह अन्यपना जन्म तथा मरण के समूह के प्रसंग में सर्वलोगों की प्रतीति में आता है अर्थात् जब शरीर को साथ नहीं लिया और मरता है तब यह शरीर साथ नहीं जाता। मुट्ठी बांधकर आया है, हाथ पसार कर जाना है, दो दिन का सब खेल तमाशा मिट्टी में मिल जाना है।
शरीर की दशा―एक बार कोई घमंडी पुरुष इतराकर चल रहा था। चलते हुए में एक उभरी हुई जमीन से उपटा लग गया तो कुछ मिट्टी खुद गई। तो मिट्टी कहती है―अलंकार में कवि की भावना देखिये―मिट्टी कहती है―अरे तू क्या घमंड से चल रहा है। तूने जो मेरे में घाव पैदा कर दिया मिट्टी कंकड जो निकल गए पैर की ठोकर से जो मुझमें घाव बन गया है इस घाव का तो तू पैबंद है अर्थात् तेरी मिट्टी से मेरा घाव भर जायेगा शरीर मिट्टी रूप बन जायेगा तो जमीन में एकसा हो जायेगा। तू क्या अभिमान करता है अर्थात् यह भी मिट्टी है। पहिले समय में लोग मांस का नाम नहीं लिया करते थे। जैसे किसी के बारे में कहना है कि वह मांस खाता है तो यों नहीं कहते थे। यों कहते थे कि वह तो मिट्टी खाने लगा, वह तो गंदी चीज खाता है। इतना शाकाहार का दृढ़ संकल्प था जनता का। तो यह मिट्टी में मिल जायेगी, इस शरीर पर क्या इतराना। इस शरीर को देखकर क्या अभिमान करना? शरीर से भिन्न अपने आपके इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप को निरखो तो इसमें कुछ कल्याण भी मिलेगा। इस शरीर के प्रेम में रहकर तो यह जीवन व्यर्थ खोया समझिये।