वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 150
From जैनकोष
अन्यत्वमेव देहेन स्याद् भृशं यत्र देहिन:।
तत्रैक्यं बंधुभि: सार्थ बहिरड्.गै: कुतो भवेत्।।150।।
परपदार्थों से आत्मा के ऐक्य का त्रिकाल अभाव―जब इस प्राणी की इस देह से अत्यंत भिन्नता है तो बहिरंग जो बंधुजन परिजन है उनमें एकता कैसे हो सकती है? ये बंधुजन तो प्रत्यक्ष भिन्न दिखाई पड़ रहे हैं। एक क्षेत्र में भी नहीं है। तो ऐसे अत्यंत भिन्न परिजनों के साथ इस देह का एकत्व कैसे हो सकता है? देह का और जीव का अनादिकाल से परंपरा से एक क्षेत्र में रहकर भी स्वरूपदृष्टि से देखो यह अत्यंत भिन्न है। देह है परमाणुओं से रचा हुआ अर्थात् अनेक पदार्थों का पुंज और जीव है एक अपने अखंड स्वरूप वाला। इस चेतन का इन बाह्य पदार्थों से तो संबंध ही क्या होगा, जब एक क्षेत्र में रहने वाले इस देहरूप निकटीय परपदार्थ से ही अत्यंत भिन्नता है। देह से अपने आपका भेदविज्ञान जगे तो अन्य जीवों से, अन्य पदार्थों से भेद-विज्ञान इसका स्वयं प्रसिद्ध हो जाता है।