वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1507
From जैनकोष
सुरं त्रिदशपर्यायैर्नृपर्यायैस्तथा नरम्।
तिर्यंचं च तदंगे स्वं नारकांगे च नारकम्।।1507।।
वेत्त्यविद्यापरिश्रांतो मूढस्तन्न पुनस्तथा।
किंत्वमूर्तं स्वसंवेद्यं तद्रूपं परिकीर्तितम्।।1508।।
यह जीव मिथ्याज्ञान से खेद खिन्न होकर बहिरात्मापन में देवपर्याय सहित देवों को देव मानता है, मनुष्य पर्याय सहित अपने को मनुष्य मानता है। तिर्यंच के शरीर में रहते हुए को तिर्यंच और नारकी के शरीर में रहते हुए को नारकी मानता है। जो शरीर है हम आपका दृश्यमान शरीर, आत्मा तथा कर्म इन तीन का यह पिंड है जो लोगों को दिख रहा है। जो एक दूसरे से वार्तालाप करता है वह इन तीन का पिंड है। अज्ञानी जीव इन तीन में से जो आत्मा है उसे नहीं समझता, किंतु इन तीन का जो समूह है उसे आत्मा मानता है। जब मनुष्यपर्याय में आया तो इस मनुष्यपर्याय को यह मैं हूँ, इस प्रकार मानता है। जब तिर्यंच पशु पक्षी की देह में रहा तो यह मैं आत्मा हूँ यों उस देह को मानता है। जिस-जिस पर्याय में जाता उस-उस पर्याय को यह आत्मा मानता है। तो यों अविद्या से खेदखिन्न होकर अपने आपकी सुध तो खो बैठता है और बाह्य देहपर्याय को आत्मारूप से मानता है, लेकिन आत्मा तो इस पर्यायरूप नहीं है। वह तो अमूर्त है, सुसम्वेद्य है। केवल ज्ञानानंदस्वरूप है। देखिये आत्मा का स्वभाव ही आनंदमय है, इसे कहीं कष्ट नहीं है। यह व्यर्थ ही अपने को दु:खी समझता है, पर दु:ख इसको रंचमात्र भी नहीं है। बाह्य पदार्थों से संबंध जुड़ा तो बाह्य पदार्थ हमारी इच्छा के माफिक परिणम जायें यह तो हो ही नहीं सकता है। तब यह खेदखिन्न होता है। इच्छा न हो तो फिर किसी बात का खेद हो तो बतावो। जितने जीव हैं सब इच्छा से दु:खी हैं और इच्छा बेकार की है, क्योंकि इच्छा से होता क्या है? इच्छानुसार होता तो है नहीं परिणमन पदार्थ का। कदाचित् मेल भी बैठ जाय कि यहाँ इच्छा हुई और वहाँ पर का परिणमन भी वैसा ही हो जाय, पर वहाँ शांति तो न मिलेगी। जब अज्ञान का पर्दा छाया है और यह जीव अपने आपको नहीं समझ पाता है तब यह बाह्य पदार्थों को अपनाता है, इच्छा करता है, और दु:खी होता है। किसी भी समय ऐसा ध्यान कर लें कि मैं देह से भी निराला केवल ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ मैं नहीं करता हूँ, न भोगता हूँ, केवल ज्ञानस्वरूप सबसे निराला हूँ। मेरा किसी से कुछ संबंध नहीं है। मैं हूँ और मैं अपने आपमें परिणमता रहता हूँ। ऐसी दृष्टि अंतर में जगे अपने आपके आत्मा की सुध हो, फिर वहाँ कोई खेद हो तो बतलावो। हम पर का नाता जोड़ते, इच्छा करते और दु:खी होते। नाता जोड़ना भी बेकार, इच्छा करना भी बेकार। जब पर का हमसे कुछ संबंध ही नहीं तो इच्छा व्यर्थ है। जिन संतों ने मुनियों ने इस तपश्चरण को किया अर्थात् इच्छावों का निरोध किया वे संसार से मुक्त हुए और उनके नाम पर बनायी हुई मूर्ति भी पूज रही है और दूर-दूर के लोग उस मूर्ति को देखने के लिए यात्रा करते हैं। हे क्या वहाँ ? बात यह है कि जिन जीवों ने इच्छा का निरोध करके अपने आपको संसार से मुक्त कर लिया है उनकी वहाँ हम याद करते हैं, अमूर्त निरखकर उस स्वरूप का हम ध्यान करते हैं। इसी के लिए तो यात्रा हे और फिर केवल एक दर्शनीय स्थान सा समझकर दर्शन कर रहे तो वह एक दिल का बहलावा है। हमें तो यह शिक्षा लेना है कि हे प्रभो ! तुम्हारी मुद्रा निरखकर मेरे अंदर यह निर्णय हुआ है कि मोक्ष का मार्ग तो यह है। आपने आप किया, इच्छावों का निरोध किया, अपने आपको जग जंजाल से मुक्त कर लिया, अब अनंत आनंदमय हो गए। यही उपाय मेरे को करना योग्य है। मेरा भी ममता से पिंड छूटे, केवल अपने आपके ज्ञानानंदस्वरूप को देखें ऐसी दृढ़ भावना रहती है ज्ञानी पुरुष की। और उसी को ही अपने आपके आत्मा की सुध होती है कि मैं आत्मा अमूर्त हूँ, सुसम्वेद्य हूँ, ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, सबसे निराला हूँ, खुद आनंदस्वरूप हूँ। इस तत्त्व को जो नहीं जानते वे बहिरात्मा जीव देह में आपा बुद्धि करते हैं। यह देह ही मैं सब कुछ हूँ, ऐसा मानते हैं।