वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 151
From जैनकोष
ये ये संबंधमायाता: पदार्था: चेतनेतरा:।
ते ते सर्वेऽपि सर्वत्र स्वरूपाद्विलक्षणा:।।151।।
समागत पदार्थों की निजस्वरूप से भिन्नता―इस जगत् में जो जो जड़ और चेतनपदार्थ इन प्राणियों के संबंधरूप हो जाते हैं वे सभी सब जगह अपने-अपने स्वरूप से विलक्षण हैं और आत्मा सबसे भिन्न है। जब लोक में सभी पदार्थ हैं तो निकट अनेक पदार्थ होते ही हैं और फिर पूर्वबद्ध कर्मों के अनुसार ऐसे संयोग भी जुट जाते हैं लेकिन यह न भूलना चाहिए कि जो कुछ भी संबंध में आया है वे सब परपदार्थ हैं, आत्मा से अत्यंत भिन्न हैं। यदि भिन्न न समझेंगे तो निकटकाल में ही बहुत दु:खी होना पड़ेगा। दु:ख और है किस बात का जीव को? केवल परपदार्थों के अपनाने का दु:ख है, मोह लगा है उसका दु:ख है, है यह ऐसा ही एकाकी कि जब तक चाहे यहाँ रहे, जब चाहे चला जाय। इसका किसी से कोई खास संबंध नहीं है, लेकिन यह जीव मोहवश अपनी ओर से ही समस्त संबंधों बना रहा है समागम में आये हुए सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में हैं, अत्यंत विलक्षण हैं और भिन्न हैं और यह मैं आत्मा अपने स्वरूप से हूँ अत: सबसे विलक्षण हूँ और भिन्न हूँ। ऐसी अत्यंत भावना में अपनी भिन्नता देखनी चाहिए।