वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1512
From जैनकोष
साक्षात्स्वानेव निश्चित्य पदार्थांश्चेतनेतरान्।
स्वस्यैव मन्यते मूढस्तन्नाशोपचयादिकम्।।1512।।
यह मूर्ख बहिरात्मा अपने से भिन्न चेतन अचेतन पदार्थों को साक्षात् अपना ही निश्चय करके उनके नाश से अपना नाश और उनके भले से अपना भला मानते हैं। पहिले देह को आत्मा मानने पर देह को परजीव माना, फिर पशु, पुत्र, स्त्री आदिक को अपना माना। अब जो अत्यंत अचेतन पदार्थ हैं― धन, वैभव, सोना, चाँदी, रुपया, पैसा, जायदाद आदि, उनको भी मानते हैं कि ये मेरे हैं, और इतना ही नहीं― धन वैभव की वृद्धि में ही अपनी वृद्धि समझते हैं और धनवैभव के नाश में ही अपना नाश समझते हैं। इसी प्रकार अज्ञानी जीव बाह्यपदार्थों में इतना आसक्त हैं, यही दु:ख का कारण है दुनिया होड़ मचा रही है। एक दूसरे से बढ़कर धन मकानों में अपना महत्त्व समझ रहे हैं, लेकिन यहाँ शांति तो नहीं मिलती और एक भव का कुछ ठीक बना लेने से इस जीव का पूरा तो नहीं पड़ता। यह जीव तो सत् है, इसके बाद भी रहेगा और किसी न किसी शरीर में रहेगा। यों अत्यंत भिन्न पदार्थों में मानते हैं कि ये मेरे हैं और उनके नाश में अपने को बरबाद समझते हैं और वैभव के विकास में ये अपना विकास समझते हैं।