वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 152
From जैनकोष
पुत्रमित्रकलत्राणि वस्तूनि च धनानि च।
सर्वथान्यस्वभावानि भावय त्वं प्रतिक्षणम्।।152।।
परपदार्थों के अन्यस्वभावत्व की भावना―हे आत्मन् ! इस जगत् में पुत्र मित्र आदिक अन्य वस्तुओं में तू निरंतर अन्यत्व भावना कर। सभी पदार्थ भिन्न हैं। संतोष जब होगा तब इस भावना के आधार पर ही होगा। अत: अपने आपको अकेला देखो और समस्त पदार्थों से न्यारा देखो। बहुत बड़ा झंझट लगा है इस जीव पर। बड़ा विकट बंधन है। किस बात का बंधन है? जैसा अभी आप अपना सद्व्यवहार बनाये हैं, इसे प्रेरित होकर अनेक पुरुषों का आपकी ओर आकर्षण हुआ है उसके उत्तररूप में आप विचार लो, दिखने वाले जीवों से कितना आप बँधे हुए हैं। संसारी जीव हम आप दिखने वाले लोगों से बँधे हुए है ना? संबंधों को देखकर निष्पक्ष समझ नहीं रह सकती? किसी न किसी प्रकार का क्षोभ करता है यह। रागादिकरूप भाव करे, जाननरूप भाव करे, कुछ न कुछ इसमें क्षोभ हो ही जाता है जिस किसी को भी देखकर और उसमें भी परिजन को देखकर, वे परिजन भी क्या हैं―स्वप्न जैसा परिचय है। मिट गये, बबूले का क्या परिचय। ऊपर से गिरे हुए जल में बबूला बन गया तो वह कितनी देर को ठहरता है, ऐसे ही यहाँ जो कुछ आकार दिख रहा है कितनी देर का ठहरना है और इसमें सार है क्या?