वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1524
From जैनकोष
एतदेवैष एकं द्वे बहूनीति धिय: पदम्।
नाहं यच्चात्मनात्मानं वेत्त्यात्मनि तदस्म्यहम्।।1524।।
जो किया हो उसके निर्णय पर हमारा सारा होनहार निर्भर है। हम आगे क्या बनेंगे, क्या करेंगे, क्या सहेंगे, किस स्थिति में होंगे, यह सब बात केवल इस पर ही निर्भर है कि मैं अपने बारे में अपने को क्या समझ रहा हूँ? अनादि से अब तक यह जीव अपने को देहरूप समझता रहा। देह के ढंग को निरखकर मैं काला हूँ, गोरा हूँ आदिक विकल्प करता है, देह के संस्थान को निरखकर मैं गोरा हूँ, लंबा हूँ, मोटा हूँ― इस प्रकार की प्रतीति रखता है और देह को ही निरखकर मैं पुरुष हूँ, नपुंसक हूँ, स्त्री हूँ, इसी प्रकार की प्रतीति रखता है। तो शरीर में आत्मा की प्रतीति रखने का फल है यह संसार का जाल बनते रहना। जन्म हो, मरण हो, सारे कष्ट उठाना ये सब बातें चलती रहती हैं। और जिस काल में यह जीव अपने आपका ऐसा निर्णय रखता हे कि मैं देह से भी निराला, रागादिक भावों से भी निराला केवल ज्ञानमात्र आनंदस्वरूप में सद्भूत आत्मा हूँ। जब ऐसी दृष्टि करता है तो शरीर इसके ख्याल में नहीं, वैभव इसके ध्यान में नहीं, केवल एक विशुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा उपयोग में रहता है ऐसी प्रतीति करने वाले जीव जन्म मरण की शृंखला से छूट जाते हैं। तो जैसे यह एक साधारण रूप से नियम है तो विशेषरूप से और भीतरी नियम है। जिन्हें एक अंदाज से समझा जा सकता है।कीड़ा, मकोड़ा, खटमल, बिच्छू कितनी ही प्रकार के जीव पाये जाते हैं। ये भिन्न-भिन्न देह मिलने के कारण कोई विशिष्ट परिणाम है। उन परिणामों को करके यह जीव भ्रमवश जन्म मरण के भार को ढोता चला आ रहा है। करना क्या है अब? करना यह है कि अपने आपका जो सहजस्वरूप है, पर के संबंध बिना अपने अस्तित्त्व के कारण अपने आपका जो स्वरूप है तन्मात्र अपने आपको प्रतीति में लेना यह काम पड़ा है। जगत में ये सारे समागम ठाठबाठ तो प्राप्त हुए हैं ये कुछ भी शरणभूत नहीं हैं, शांति के कारणभूत नहीं हैं। प्रत्युत जगजाल भ्रमण कराने के कारण हैं। अपने आपको इस रूप मत समझिये। मैं सुखी हूँ, दु:खी हूँ, गरीब हूँ, राजा हूँ, सुंदर हूँ, कुरूप हूँ― ये सार प्रत्यय समस्त विश्वास इस जीव के अनर्थ के कारण हैं।मैं देह से भी निराला केवल ज्ञानानंदमात्र हूँ। मैं पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, नपुंसक हूँ इस रूप अपने को अनुभव न करें। जब देह ही मैं नहीं हूँ। देह से निराला एक चैतन्यमात्र वस्तु हूँ तो फिर स्त्री कहाँसे? इस शरीरकृत संबंध से भी उपयोग हटाकर केवल ज्ञानस्वरूप अपने को निरखें तो यही है धर्मपालन।
देखिये कुछ कल्याण बुद्धि जगी है, धर्म के लिए कुछ यत्न करना चाह रहे हैं ठीक है, मगर सही निर्णय करके सही ढंग से तो धर्मपालन करना कर्तव्य है। एक यह बात यदि प्रतीति में न आये तो धर्मपालन न होगा। चाहे कितना ही श्रम किया जाय।कौनसी बात? मैं देहादिक सबसे निराला केवल ज्ञानप्रकाश मात्र हूँ ऐसा दर्शन अनुभवन विश्वास अपने को न हो सका तो धर्मपालन न होगा। यह मूल की बात कही जा रही है। इसी प्रकार यह एक है, यह दो है, यह बहुत है ऐसी संख्या के विषय का स्थानभूत भी मैं नहीं हूँ। मैं एक चैतन्यस्वरूप हूँ। जिस स्वरूप से हूँ उस स्वरूप से मैं जब निरखता हूँ, तो मेरा कहीं कुछ नहीं है, मैं अकिंचन हूँ, मेरा मात्र मैं हूँ। मैं पर में दृष्टि डालकर दु:खी होता हूँ। मैं अपने ही द्वारा अपने को अपने में जानने वाला हूँ। ऐसा मैं सुसम्वेद्य हूँ, अकेला हूँ। प्रत्येक पदार्थ में यह बात है कि पदार्थ का जो परिणम होगा वह उस पदार्थ में ही होगा, उस पदार्थ से बाहर न होगा। तो अब अपनी भी सुनिये।मैं आत्मा हूँ, जाननहार हुँ, यह जानन का जो काम हे वह मेरे आत्मप्रदेशों में ही हुआ करता है बाहर न होगा। जिसे यह भ्रम है अथवा ख्याल है कि देखो मैं इस भींट को जानता हूँ, मैं इस पेड़ को जानता हूँ जो सामने खड़ा हुआ है, अरे जब मैं जाननहार आत्मा हूँ तो मेरे जानने का काम मेरे में होगा कि पेड़ में या भींट में होगा? लगता जरूर ऐसा है कि मैं वहाँ सीधे पेड़ को जान रहा हूँ, भींट को जान रहा हूँ पर जानने का जो भी काम है वह जानने वाले में हो रहा है, इससे बाहर नहीं हो रहा है, जानने की परिणति से हो रहा है, पर जानना एक ऐसा खासा काम हे कि उसमें कुछ तो समझा जा रहा है। जो समझा जा रहा है उसे हम सीधा कह बैठते हैं।मैं पेड़ को नहीं जानता, भींट को नहीं जानता, इतने मनुष्यों को मैं नहीं जानता, पुस्तक चौकी आदिक को नहीं जानता। मैं अपने आपको ही जान रहा हूँ। और मैं अपने आपको उस रूप से जान रहा हूँ, उस ढंग से जान रहा हूँ, उस आकार से जान रहा हूँ जिससे जानने पर हमें यह समझ बैठती है कि यह पत्थर है, यह चौकी है, यह वृक्ष है। इसे एक दृष्टांत से यों समझिये कि जैसे एक दर्पण है और पीछे जो कुछ भी चीज है भींट, लडके इत्यादि वे सब हमें दर्पण में जानने में आ रहे हैं, मैं उनको सीधा नहीं जान रहा। देखता हूँ केवल दर्पण को और बताता हूँ उस सबको। वह भींट है, वह लड़का है, वह पेड़ है। जो-जो कुछ भी बात कर रहा होगा वह सब बताते हैं और जान रहे हैं केवल दर्पण को ही, ऐसा भाव है ना, केवल दर्पण को ही देखकर पीठ पीछे की सारी बातों को बताते रहते हैं। ऐसी ही बात अपने आत्मा की है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है और उसमें ये सब कुछ पदार्थ प्रतिबिंबित हो रहे हैं, तो मैं इन प्रतिबिंबित पदार्थों को जान रहा हूँ, पर अपने आत्मा में इन सबका वर्णन करता रहता हूँ। यह भींट है, पेड़ है आदि।
अब सोचिये कि हमारा इन पदार्थों में जानने तक का भी ऐसा संबंध नहीं है कि जो मैं उन पदार्थों में जाकर जानूँ। तब राग की तो बात ही क्या कहें। लोग कहते हैं कि मेरा अमुक में बड़ा राग है।अरे जो मैं करता हूँ, जो मेरा परिणमन है वह मुझमें ही रहेगा, मुझसे बाहर न रहेगा। एक यह सिद्धांत है, हाथ का जो परिणमन है वह हाथ में ही रहेगा, हाथ से बाहर न रहेगा।फोड़ाहो फुंसी हो तो कहीं बाहर फोड़ा फुंसी देखें। हाथ में जो कुछ बात है वह हाथ में रहेगी। जिस पदार्थ में जो कुछ बात है वह उस पदार्थ में रहेगी। आत्मा में यदि राग की बात चल रही है, रागपरिणमन उठ रहा है तो वह आत्मा में ही रहेगा। यह कहना झूठ है कि मेरा राग इन बच्चों में है, मेरा राग इस वैभव में है, मेरा राग तो मेरे आत्मप्रदेशों में ही है, उससे बाहर राग नहीं है। हम कहते हैं कि इसमें हमारा राग है, पर वस्तुत: हमारा राग परपदार्थों में जा नहीं सकता। राग मेरा अपने प्रदेशों में ही रह जाता है। तब समझ लीजिए कि मेरा जगत से क्या संबंध है? मैं अपने आपमें ही बैठा हुआ कल्पनाएँकरके शेखचिल्ली बना करता हूँ।मैं तो सबसे निराला केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूँ। इसे दूसरा कोई नहीं जानता। व्यर्थ का भ्रम न कीजिए कि मुझे जानने वाले इतने लोग हैं ये क्या कहेंगे? अरे मुझे जानने वाला एक भी नहीं है। आप अपने में ऐसा सोचिये कि मुझे जानने वाला इतने लोक में एक भी नहीं है। और यदि कोई जानने वाले मिल जायें तो मेरे जानने में मैं नहीं आया, चैतन्यस्वरूप आया जिसको सब जान जाते हैं। फिर किससे क्या चाहें? अपने आपका ऐसा अनुभव करें कि मैं देह से भी निराला केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूँ। इस अनुभव से आपको मुक्ति का मार्ग मिलता है और बाह्य पदार्थों को अपनाने से संसार की भटकना बनेगी। इस बात पर पहिले जोर दीजिए।
भैया ! अपने आपको समझिये वास्तविक रूप में कि मैं क्या हूँ, क्योंकि धर्मपालन इस आत्मनिर्णय के ऊपर ही निर्भर है। धर्म किसमें किया जाय? जब धर्म के आधारभूत का परिचय नहीं तो धर्म कहाँ किया जाय? हमारे बाहरी जितने भी विभ्रम हैं वे सब इस निश्चय धर्म को प्राप्त कराने के लिए हैं। देवपूजा करते हैं तो देव का सही स्वरूप समझकर हम अपने आपमें अपने स्वरूप का अनुभव करना चाहते हैं। यदि कोई देव से यों कहने लगे और यों श्रद्धा करने लगे कि हे देव !मुझे आप सुखी करना, मेरा मुकदमा जिताना, ऐसा कोई कहे तो उसने देव का स्वरूप नहीं जाना और न देवपूजा हुई। देवपूजा तो उस गुणस्मरण में है जिस गुणस्मरण के होने पर अपने आपके स्वरूप का भी स्पर्श होता जाता है। ऐसे ही गुरुवों की उपासनाहै। जैसे कोई किसी रिश्तेदार की सेवा करता है ऐसा केवल रिश्ते का या कुछ अपनी कुलपरंपरा को जानकर गुरु सेवा करे तो अभी धर्म का स्पर्श कराने वाली गुरुसेवा नहीं है। यह सम्यक्त्व के धारी, विशुद्ध निर्णय वाले, इस आत्मा की ही धुन बनाने वाले, ऐसे ये गुरु हैं,इन्हें आत्मा की धुन बनी हुई है, ऐसे विश्वास सहित गुरुवों की सेवा करे तो उसमें आत्मा का भी स्पर्श होता जाता है और वही गुरु की उपासनाहै। स्वाध्याय में भी जो कुछ लिखा है वस्तुत:बाँचते चले जा रहे और ऐसा संतोष कर लिया जाता है कि हमने स्वाध्याय का नियम लिया, सो 10-15 मिनट बैठ लें, हम अपनी प्रतिज्ञा निभा लें तो केवल प्रतिज्ञा निभा लें और वहाँ अपने आत्मा का कुछ भी चिंतन न बने तो समझिये कि अभी विधिपूर्वक स्वाध्याय नहीं है। जो बात ग्रंथ में लिखी है उसे पढ़कर अपने आपमें घटायें, चाहे 4 लकीर ही पढ़ा जाय, पर क्या कहा है इस वाक्य में उसे अपने पर घटाकर देखें तो इस विधि से अपने आपमें अपना ज्ञानप्रकाश मिलता हे और तब यह स्वाध्याय स्व का अध्ययन है। इसी प्रकार संयम की बात है। बाहर में अमुक चीज उठाना, अमुक प्रकार से रहना यह नियम नहीं है, यह त्याग है, ठीक है, पर यह नियम यह त्याग ये सब कुछ बातें किस लिए की जा रही है? एक अपने आप ज्ञानमात्र अनुभवने के लिए किया जा रहा है, ऐसा निर्णय नहीं होता, और मैं साधु हूँ, त्यागी हूँ, मुझे तो ऐसा तप करना चाहिए, मुझे यों नियम से रहना ही चाहिए यह तो विकल्प उठता है। इस विकल्प में उपयोग बसाये हैंतो वहाँ धर्मपालन नहीं हो सकता। जब तक आत्मा के स्वभाव का स्पर्श न हो, बोध न हो इसे दृष्टि में न लिया जाय तब तक कितना भी तपश्चरण हो वह सम्यक्विधि नहीं है। तभी तो लिखा है कि मुनिव्रतधार अनंतबार ये ग्रैवक उपजा। पै निज आत्मज्ञान बिना सुख लेश न पायो।। मुनिव्रत धार करके ग्रैवेयक तक अनेक बार उत्पन्न हुआ।देखिये स्वर्गों से ऊपर है ग्रैवेयक। ग्रैवेयक में बहुत अच्छा सदाचारी तपस्वी साधु ही उत्पन्न हो सकता है।तो तपश्चरण तो किया, कषाय भी मंद रखा, शत्रु को शत्रु नहीं समझा, इतना कठिन तपश्चरण भी किया, पर कौनसी बात ऐसी हो गई जिससे मोक्ष नहीं पा सकें। ग्रैवेयक में गए तो वहाँ से आयु समाप्त कर फिर नीचे उतरना ही पड़ता है, कोई साधारण मनुष्य होना ही पड़ता है। कौन-सी कमी रह गई?वह कमी रह गयी अपने आपको एक चैतन्यमात्र प्रतीति में न लेना। लिया प्रतीति में कि यह मैं साधु हूँ। जैसे कोईसोचता है कि यह मैं व्यापारी हूँ, मैं अमुक कार्य करता हूँ, इसी ढंग से इसने समझ लिया कि मैं साधु हूँ, त्यागी हूँ, मुनि हूँ, अपने आपको यों ही अनुभवें कि मैं तो केवल चैतन्यमात्र हूँ, ज्ञानानंदमात्र हूँ, पोजीशन से, नामवरी से, देह के परिचयों से, इन सब वातावरणों से निर्मल हूँ, ऐसा अपने आपको अमूर्त चैतन्यस्वरूपमात्र प्रतीति में नहीं लिया, जिसका फल यह हुआ कि मुनिपदधार अनंतबार ग्रैवकउपजायो, पर आतम के ज्ञान बिना शांति का लेश भी नहीं प्राप्त किया।
हम धर्म के लिए बहुत-बहुत श्रम भी करते हैं, पर वह मौलिक चीज, गाँठ का वह दाम, गांठ की चीज मेरे पास है भी अथवा नहीं? निर्णय तो करें। कोई सेठ किसी मिल में गया और वहाँ से 50-60 बोरा धान खरीद लिया और बेचकर लाभ उठाया। एक अज्ञानी सेठ उसके पीछे लग गया। सोचा कि आखिर देखें तो सही कि यह सेठ क्या करता है जिससे इतना धनी हो गया। उस पड़ोसी ने धान के बोरे खरीदकर ले जाते हुए देखा था सो उसने भी वैसा ही किया। एक मिल में धानों का छिलका पड़ा था जिसके अंदर चावल न था, कुछ मील ऐसे भी होते जिनमें धान में से चावल निकल जाता, पर धान का छिलका साबुत बना रहता। तो उसने उसी रंग की चीज उसी भाव में 50-60 बोरे भरवा लिया और ले जाकर बेचा तो टोटा आया। इससे यह जानें कि ज्ञान बिना सारे तपश्चरण व्यर्थ हैं। ज्ञानी पुरुषों का भीतर में क्या परिणाम रहता है, उनका क्या भाव रहता है―इस बात को तो कोई जाने नहीं और एक यों ही देखो कि इन साधु संतों ने ऐसा भेष लिया का, ऐसा व्रत पाला था, ऐसा आहार करते थे, यों ही जानकर सारे काम करे, पर लौकिक बातों का पता नहीं तो उन्हें वह फल नहीं प्राप्त हो पाता जो ज्ञानी साधुजनों को प्राप्त होता है। एक गाँव के 4-5 बजाज घोड़ा लेकर कपड़ा खरीदने के लिए गए। जब घर को लौट पड़े तो रास्ते में रात हो गई।जाड़े के दिन थे। रास्ते में ही एक पेड़ के नीचे वे ठहर गए। इधर उधर से बाड़ जरेंठा आदि बीन-बानकर लाये, रातभर आग जलाकर खूब तापा। सबेरा होते ही अपने घर चले गए। इस बात को पेड़ पर बैठे हुए बंदर देख रहे थे? दूसरे दिन उन सब बंदरों ने परस्पर में सलाह की। सलाह यह हुई कि कल रात्रि को 4-5 मनुष्यों ने आग जलाकर खूब तापकर अपनी ठंड मिटाया था। अपन भी तो वैसे ही हैं, अपन भी वैसा ही काम करें और अपनी ठंड मिटायें। सो चारों तरफ सभी बंदर दौड़पड़े। इधर-उधर से बाड़-जरेंठा वगैरह लेकर पेड़ के नीचे इकट्ठा किया। बैठ गए सभी अपनी ठंड मिटाने पर ठंड न मिटी। उनमें से एक बंदर बोला कि अभी तो इसमें लाल-लाल चीज डाली ही नहीं। ठंड कैसे मिटे? तो वहाँ लाल-लाल खूब पटबीजना उड रहे थे सो उन्हें पकड़पकड़करबाड़ में झोंकने लगे। इतने पर भी ठंड न मिटी तो एक बंदर बोला कि इस तरह से हाथ फैलाकर बैठो तो ठंड मिटेगी। वे हाथ फैलाकर बैठ गए पर ठंड न मिटी। फिर एक बंदर बोला कि वे मनुष्य इसे यूँमुख से फूँक रहे थे, अपन भी मुख से फुकें तो ठंड मिटेगी। मुख से फूँका फिर भी ठंड न मिटी।तो सारे उद्यम कर डाले पर ठंड न मिटा सके। अरे ठंड कैसे मिटे? ठंड मिटाने का कारण जो अग्नि है उसका तो परिज्ञान नहीं है। तो यों ही सही परिज्ञान हुए बिना कोई धर्म क्रियाएँ भी करें तो भी वे क्रियाएँ विडंबनारूप बन जाती हैं। सर्वप्रयत्न करके एक अपने आत्मतत्त्व का परिज्ञान करें कि मैं क्या हूँ, यही एक अपना आवश्यक काम है। इससे अधिक आवश्यक और कोई भी काम नहीं है। तो ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है कि जब मैं देह ही नहीं तो पुरुष नपुंसक स्त्री की बात ही क्या? सुभग, कुरूप, सुख दु:ख की बात ही क्या? मैं तो केवल एक ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूँ। इस ज्ञानानंद स्वरूप का ही में कर्ता एवं भोक्ता हूँ। अपने आपसे बाहर किसी भी तत्त्व का मैं कर्ता एवं भोक्ता नहीं हूँ। अपना विशुद्ध चैतन्यस्वरूप विश्वास में आये तो धर्मपालन होगा। अपने आपकी पकड़ के बिना, अनुभव के बिना धर्मपालन होता नहीं, इस कारण कष्ट तो इतना करते है, सब कुछ समय भी लगाते हैं पर एक मूल बात और उत्पन्न हुई कि मैं अपने आपके सही स्वरूप का अनुभव कर लूँ कि मैं यह हूँ तो समझ लीजिए कि हमारा सारा प्रयास सफल हुआ।