वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1539
From जैनकोष
य: सिद्धात्मा पर: सोऽहं योऽहं स परमेश्वर:।
मदन्यो न मयोपास्यो मदन्येन न चाप्यहम्।।1539।।
ज्ञानी पुरुष विचार कर रहा है कि जो सिद्ध परमात्मा है, जो उत्कृष्ट परमात्मा है, परमेश्वर है वही तो मेरा रूप है, वही मैं हूँ। मेरा मेरे सिवाय अन्य कोई उपासना के योग्य नहीं है। देखिये― अरहंत भगवान ने ऐसा यथार्थ निर्णय किया तो किसमें किया? इस ज्ञानमय स्वयं में किया। अरहंत निर्दोष हैं, सर्वज्ञ हैं, परमपूज्य हैं, ये सब बातें निर्णय में जो आ रही हैं वही तो ज्ञान अरहंत है। हम जब गुणों को, प्रभु की उस विशुद्धता को अपने उपयोग में लेते है तो आनंदविभोर हो जाते हैं क्योंकि मेरा स्वरूप, सिद्ध प्रभु का स्वरूप एक समानहै। तो जब इस विशुद्ध स्वरूप का विशुद्ध स्मरण होता है तो परमात्मा का उसमें स्मरण होता है और जब परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ स्मरण होता है तो वही आत्मा का स्मरण है। कहाँहै भेद मुझमें और प्रभु में? पर बीच में इतना कठिन पर्दा डाल रखा है कि भेद पड़ गया है, लेकिन मुझमें और परमात्मा में भेद नहीं है। अर्थात् जब स्वरूप दृष्टि करते हैं तो जैसा चैतन्य स्वरूप मैं हूँ वैसा ही चैतन्यस्वरूप परमात्मतत्त्व है। मुझमें और परमात्मस्वरूप में अंतर नहीं है। इसी प्रकार जो निरखता है वह ज्ञानी पुरुष है। और जो अपने को अन्य-अन्य रूप देखता है वह अज्ञानी है। ज्ञानी को तो संसार से छुटकारा है और अज्ञानी को संसार के क्लेश हैं। है कुछ नहीं बाहर की चीज अपनी, बस ज्ञान और अज्ञान का सारा अंतर है। चीज तो जहाँ है सो है। जब मनुष्य मर जाता तो कौनसी चीज साथ ले जाता है? जो है जहाँ है सो है। अज्ञानी जीव परवस्तुवों को अपनी मानता है और उनके बिछोह के समय क्लेश मानता है और ज्ञानी पुरुष अपनी शुद्धि प्रतीति के बल से अपने आपमें प्रसन्न रहा करता है।