वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1540
From जैनकोष
आकृष्य गोचरव्याघ्रमुखादात्मानमात्मना।
स्वस्मिन्नेव स्थिरीभूतश्चिदानंदमये स्वयम्।।1540।।
ज्ञानी पुरुष ऐसी भावना करता है कि मैं अपने आत्मा को इंद्रिय के विषयरूपी व्याघ्र में मुख को काढ़कर आत्मा के द्वारा ही मैं चिदानंदमय अपने आत्मा में स्थिर रूप होता हूँऐसा देखकर चैतन्य और आनंद में लीन होना चाहिए। अपना आत्मा इंद्रिय के विषय के व्याघ्र के मुख में फँसा हुआ बरबाद हो रहा है। जब इंद्रिय के कहने में अपन लग जाते हैं, इंद्रियाँजो चाहतीहैंउस प्रकार अपन उसकी चाह की पूर्ति में लग जाते हैं तब तो यों समझिये कि मैं ऐसा असहाय हूँ। जैसे व्याघ्र के मुख में पड़ा हुआ कोई मनुष्य असहाय है तो यों मैं आत्मा अनादि से अब तक एकेंद्रिय के विषयरूपी व्याघ्र के मुख में फँसा हुआ था। अब वहाँ से अपने को निकालकर मैं चिदानंदस्वरूप अपने आत्मा में स्थिर हुआ हूँ। केवल एक शुद्ध दृष्टि रखें, बाहरी दृष्टि मोड़े तो वहाँ केवल क्लेश ही होगा और अपने आपकी ओरदृष्टि दें तो वहाँ इसे शांति प्राप्त हुई।मैं अपने को यथार्थ अपने ही द्वारा तो अनुभव सकता हूँ सो मेरा शरण मेरे में है और उस अपने उपयोग को मैं प्राप्त कर सकता हूँ। मैं चैतन्यमात्र हूँ― ऐसा विशिष्ट बारबार अनुभव होता हुआ प्रयत्न कर करके वह सब प्रकाश जो मोक्ष का कारणभूत है, अनुभव में आ जाता है। करें तो उपेक्षा। वैराग्य रखें तो बाह्य वस्तुवों से, लेकिन बाह्य वस्तुवों में यह जीव ऐसा उपयोगी हो रहा है कि जिन्हें मानता कि ये ही मेरे सब कुछ हैं। सों इस ज्ञानी ने उस व्याघ्र के मुख से अपने को खींच लिया अर्थात् इंद्रिय के विषयों में फँसने से अपने को हटा लिया। तब वह निरख रहा है कि अहो ! यह मैं आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप हूँ। बाहर से कहाँ आनंद लेनाहै? बाहर से आनंद आता ही नहीं, किंतु लोग एक भ्रम कर लेते हैं कि मुझे बाहर से मेरा सब कुछ प्राप्त हुआ। सो ज्ञानी पुरुषों को उपदेश दिया है आचार्यों ने कि उस चैतन्य और आनंदस्वरूप में लीन होवें और उसके उपाय में यह भेदविज्ञान उनके बर्तता रहे।