वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1547
From जैनकोष
यत्राज्ञात्मा रत: काये तस्माद्वयावर्तितो धिया।
चिदानंदमये रूपे योजित: प्रीतिमुत्सृजेत्।।1547।।
जिस काय में अज्ञानी आत्मा रागी होता है उस काय से बुद्धिपूर्वक भिन्न किया गया, चिदानंदस्वरूप में लीन हुआ मन उस काय में प्रीति को छोड़ देता है। जैसे पुराणों में बड़े-बड़े महामुनियों का चरित्र जहाँ बताया है उपसर्ग के समयों का तो आप समझ लीजिए कि देह से कितनी प्रीति उनकी कम हुई? सुकुमाल मुनि को सिंहनी खाती जाती थी, पर उनका उपयोग अपने आत्मस्वरूप में ही टिका हुआ था। किसी उपलों केघर में जहाँ गोबर के उपले रखे हुए थे उस घर में उन मुनिराज को बैरवश बंद कर दिया और कमरे में आग लगा दी। उस समय जरा विचार तो करो कि उन्हें क्या वेदना हुई? सुकुमाल मुनि को सिंहनी खाती जाती थी, महामुनि कोल्हू में पेले गए, समुद्र में फेंक दिए गए, चाकू से चाम छीलकर उसमें नमक भरा गया लेकिन चित्त एक आत्मतत्त्व की ओर था। यह एक भीतरी सावधानी की बात कही जा रही है। यहाँ तो लोग जरा जरासी बातों में अपने श्रद्धान को शिथिल कर लेते हैं और मैं कुछ नहीं कर सकता, इस प्रकार की कायरता को चित्त में बसाये रहते हैं, लेकिन भावों से जिस समय उन परपदार्थों से दूर हुआ उस समय यह जीव इस योग्य है कि वह अपने में परमात्मतत्त्व का दर्शन करता है। जब अज्ञान दशा थी तब यह जीव शरीर में रागी था। रागी क्या था, शरीर को आत्मारूप से मानता था। शरीर से जीव भिन्न है यह उपयोग में समाया ही नहीं जा सकता। जब यथार्थस्वरूप का बोध हुआ तब समझ में आया। ओह ! यह काय क्या है, अत्यंत विलक्षण है, आत्मा से भिन्न है। उस काया से फिर ज्ञानी पुरुष को प्रीति नहीं जगती। वह तो सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा में ही लीन होने का यत्न करता है।