वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1548
From जैनकोष
स्वविभ्रमोद्भवं दु:खं स्वज्ञानेनैव हीयते।
तपसापि न तच्छेद्यमात्मविज्ञान वर्जितै:।।1548।।
अपने विभ्रम से उत्पन्न हुआ दु:ख अपने ही ज्ञान से दूर होता है। जैसे पड़ी तो रस्सी है और विभ्रम हो गया कि यह सांप है तो यह विभ्रमा पुरुष आकुलित होता है, और-और साधन जुटाता है। फल यह होता है कि जब तक किसी भी प्रकार के साधन जुटायें, इस आत्मा को शांति पथ नहीं मिल सकता। कितने ही साधन लोग जुटाते अपने ऐश आराम के, अपने को सुखी बनाने के लिए, लेकिन फल उल्टा ही होता है, क्षोभ बढ़ता है, विपदा बढ़ती है। दु:ख नाम है किसका? इसे बहुत-बहुत समझाया जाय तो दृष्टि जायगी कि इस दु:ख का संबंध अन्य पदार्थ से है। जैसे रस्सी को सांप जाना तो वह काहे की घबडाहट थी? वह घबडाहट इसी बात की थी कि रस्सी में सर्प का विभ्रम हो गया है। विभ्रम होने से वह खेदखिन्न हो गया। वह खेदखिन्नता कैसे मिटे? कोई हजारों रुपये दे दे तो भी खेदखिन्नता न मिटेगी। वह खेदखिन्नता तो अज्ञान से उत्पन्न हुई है। अज्ञान से उत्पन्न हुई यह खिन्नता ज्ञान होने पर दूर हो जाती है। घबडाहट तब थी जब रस्सी को सांप जान रहे थे, पर जब थोड़ी सी हिम्मत करके देखें कि यह तो रस्सी ही हे तो यथार्थ जहाँ ज्ञान हुआ वहाँ विभ्रम सब समाप्त हो जाता है। तो अज्ञान से दु:ख उठाया जा रहा था वह दु:ख ज्ञान से दूर किया जा रहा है। जान लेवें कि मैं सबसे निराला ज्ञानमात्र हूँ। कैसी ही कठिन स्थिति हो, कितनी भी दु:खमयी स्थिति हो पर सम्यग्ज्ञान के होने पर सब दु:ख दूर हो जाते हैं। और फिर ज्ञान से दूर हुआ भ्रम फिर उस भ्रम को उत्पन्न करने में एक साधन भी नहीं बन सकता। जैसे रस्सी को जान लिया कि यह रस्सी है, फिर कोई कितना ही बहकाये, कितनी ही कुछ भी आकुलताएँ प्रतिकुलताएँ करे, पर उसके चित्त में भ्रमभरी बात नहीं रह सकती है। वह तो जान जाता है कि यह रस्सी ही है। ऐसे ही जिसने अपने आत्मा के स्वरूप को जान लिया और खूब योग्यतानुसार उसने अपने चित्त में बसा लिया, भ्रम दूर हुआ, शुद्ध अंतस्तत्त्व का बोध हुआ अब उसे कोई भी हटाने में, उसको विभ्रमरहित से च्युत करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। अज्ञान से ही दु:ख उठाया था, अज्ञान दूर हुआ कि दु:ख दूर हुआ।