वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1561
From जैनकोष
विषयेषु न यत्किंचित्स्याद्धितं यच्छरीरिणाम्।
तथाप्येऽवेव कुर्वंति प्रीतिमज्ञा न योगिन:।।1561।।
इंद्रिय के 5 विषयहैं―स्पर्शन इंद्रिय का स्पर्श, रसना इंद्रिय का रस, घ्राण इंद्रिय का गंध, चक्षु इंद्रिय का रूप और कर्ण इंद्रिय का शब्द। जैसे कि कभी ठंडा स्पर्श सुहाता है, कभी गर्म और कभी कोमल, ऐसे नाना तरह के स्पर्श सुहाये, वह तो इंद्रिय के विषय की बात है। रसना इंद्रिय में किसी को खट्टा सुहाता, कभी मीठा सुहाता है, कभी कडुवा भी सुहाता। करेला कड़वा होता है पर उसका साग बनता है, मेथी कड़वी होती है उसका भी साग बनाते हैं। तो कडुवा भी सुहाता, कभी कषैला भी। चीज-चीज की बात है। तो रस सुहाना यह रसना इंद्रिय की बात है। कभी गंध सुहाता, तो गंध नाना तरह के हैं।कभी किसी प्रकार की गंध, कभी किसी प्रकार की , ऐसी नाना तरह की गंध है, नाना तरह के इत्र हैं वे सुहाते हैं। तो घ्राण इंद्रिय के विषय की बात है। रूप सुहाते। कभी कैसा ही रूप सुहाता, कभी कैसाही। शब्द भी नाना हैं। कोई राग भरे शब्द, कोई मोह भरे शब्द। तो ये शब्द सुहाते हैं। यह कर्णेंद्रिय की बात है। तो ये 5 इंद्रियों के जो 5 विषय हैं उनमें कोई भी विषय ऐसा नहीं जो इन प्राणियों को हितरूप हो। किसी से आत्मा का हित नहीं है। बहुत-बहुत विषयों के साधन जुटे हों, खूब खाने-पीने की मौज हों, हर तरह के आराम हों, उसमें भी जीवों को हित नहीं है, क्योंकि सभी समागम क्षणभंगुर हैं, भिन्न हैं, नष्ट होने वाले हैं, उनसे आत्मा की भलाई नहीं है, लेकिन जो ज्ञानीपुरुष हैं, मोहीजन हैं वे उनमें ही प्रीति करते हैं। रखा नहीं कुछ सार विषयों में, पर अज्ञानी जीवों को वही सार नजर आते हैं। सब प्रयत्न करके उन विषयों के साधनों के जुटाने में ही मग्न रहा करते हैं। हाँ जो योगीजन हैं, अध्यात्मरस के प्रेमी पुरुष हैं वे नहीं करते हैं विषयों में प्रीति। तात्पर्य यह है कि विषय प्रीति के लायक नहीं हैं। जो विषयों से प्रीति रखते हैं वे धोखा खाते हैं इस भव में भी और उनका अगलाभव भी बिगड़ता है। दुर्गतियों में जाना पड़ता है। वहाँ भी धोखा है। इससे विषयों में प्रीति नहीं करना है। प्रीति करें परमात्मा के स्वरूप में और परमात्मा के स्वरूप की तरह अपने आपका स्वरूप जानकर अपने आत्मा में प्रीति करें।