वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1562
From जैनकोष
अनाख्यातमिवाख्यातमपि न प्रतिपद्यते।
आत्मानं जडधीस्तेन बंध्यस्तत्र ममोद्यम:।।1562।।
ज्ञानी पुरुष चिरकाल तक अपने आत्मा के ध्यान में ही मग्न रहा करते हैं। वे लोगों से वचनव्यवहार कम रखते हैं, बोलते कम हैं, अधिकतर मौन से रहा करते हैं। वही बोलते हैं जहाँ कुछ आत्मा के उद्धार की बात निभती सी हो।मूर्खों में जो अत्यंत मूढ़पुरुष हैं, विषयों के व्यामोहीजन हैं उनमें वचनव्यवहार योगीजन नहीं करते हैं, क्योंकि अधिक मोही व्यामोही पुरुषों में बोलकर अपने आपके समय को बिगाड़ना और अपनी बुद्धि खराब करना, उसमें कुछ सार नहीं समझते। क्यों नहीं व्यामोही आसक्त पुरुषों से बोलते हैं, उसका कारण इस श्लोक में दिखाया है कि जो अधिक मोही जीव हैं, जैसे वे बिना समझाये अपने मोह में लग रहे हैं ऐसे ही उन्हें कितना ही समझावो तो भी वे अपनी उस मोह की रीति को नहीं छोड़ते। तो न समझाये की तरह समझाया जाने पर भी तो वे बात को नहीं मान सकते, इस कारण से ज्ञानीजन सोचते हैं कि उन मूढ़पुरुषों में कुछ भी समझाने करने का उद्यम करना व्यर्थ हे, ऐसा समझकर वे वचन प्रवृत्ति व्यामोही पुरुषों से नहीं करते। जो पुरुष आत्महित का इच्छुक है, मंदकषाय वाला है, जिसको अपने आपकी भलाई का कुछ मन में बात जगी है, कुछ-कुछ धर्ममार्ग में लगना चाहता है ऐसे पुरुष को तो ज्ञानीजन समझाते हैं। पर जो अति व्यासक्त हैं, मूढ़ हैं उनको समझाने के लिए वे समय नहीं रखते। जिसमें उनका उपयोग निर्मल रहे उनमें ही अपना प्रयत्न रहता है। बाह्य व्यवहार इसी कारण उनका कम रहता है।