वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1570
From जैनकोष
मुक्तिरेव मुनेस्तस्य यस्यात्मन्यचलास्थिति:।
न तस्यास्ति ध्रुवं मुक्तिर्न यस्यात्मन्यवस्थिति:।।1570।।
जिसकी आत्मा में निश्चल स्थिति होती हैउसकी मुक्ति ही समझिये। जिसने अपने ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा को अपने उपयोग में लिया है उस पुरुष की मुक्ति ही समझिये। और जिसमें अपने आत्मा में उपयोग रमाने की कला नहीं आयी उसको समझिये कि मुक्ति नहीं है। कोई लोग एक ज्ञानमात्र से मुक्ति मानते है। ज्ञान हो गया, जानकारी हो गयी अपने स्वरूप की तो इसी से मुक्ति नहीं है। जान रहे और उल्टा चल रहे तो उससे मुक्ति नहीं है। जैसा स्वरूप है वैसा जाने और वैसा ही परिणाम स्थिर रहे तो मुक्ति होती है। जो आत्मा में स्थित है, उपयोग लग रहा है उसकी मुक्ति होती है, ऐसा कहने में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों ही आ जाते हैं क्योंकि उपयोग वहाँ रमता है जहाँ इसकी श्रद्धा हो। विषयों में सुख की श्रद्धा हे तो विषयों में चित्त रमेगा। अपने आत्मा में सुख की श्रद्धा है तो आत्मा में रमेगा चित्त। आत्मा में उपयोग रमाना इसी में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र ये तीनों आ गए। इस ही रत्नत्रय में मुक्ति प्राप्त होती है। इसे यों कहो कि अपने आत्मा में जिसकी अचल स्थिति होती है उसकी मुक्ति हो जाती है।