वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1575
From जैनकोष
आत्मात्मना भवं मोक्षमात्मन: कुरुते यथा।
अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव स्फुटमात्मन:।।1575।।
इस शरीर को ही निज आत्मा मानकर शरीरों की संतति बढ़ाना―इसी का नाम है अपना संसार बढ़ाना। और शरीर में आत्मा का अनुभव न करके ज्ञानानंदस्वरूप यह मैं आत्मा हूँ ऐसा अनुभव करने के बल से यह जीव संसार के आवागमन से छुटकारा पा लेता है। यही परमशांति का स्थान है। अब हम यह विचार करें कि हमें शांति चाहिए अथवा अशांति, मोक्ष चाहिए या संसार का आवागमन? इन दोनों ही बातों की प्राप्ति हमारे अपने आपके परिणामों पर निर्भर है। अपने ही द्वारा यह आत्मा अपना संसार बनाता हे और अपने ही द्वारा यह आत्मा मुक्ति को प्राप्त करता है। मुक्ति प्राप्त करना भली बात है और संसार में जन्म-मरण की परंपरा बढ़ाना यह बुरी बात है। यहाँ कौन किसका दुश्मन? कौन किसका मित्र? हमीं अपने आपके दुश्मन हैं, हमीं अपने आपके मित्र हैं। अगर अपनी जन्ममरण की परंपरा बढ़ाते हैं तो हमीं अपने दुश्मन हैं और अगर मुक्ति प्राप्त करते हैं तो हमीं अपने आपके मित्र हैं। जब अपने में अज्ञानभाव है, परपदार्थों को अपनाने की बुद्धि चलती है तो इस परिस्थिति में यह आत्मा स्वयं अपने आपका बैरी है और यह आत्मा जब दुर्विचारों से बचकर, बाह्य विकल्पों से छुट्टी पाकर, परपदार्थों के ग्रहण से विराम लेकर अपने आपमें आरूढ़ होता है तो इसी का नाम हे मोक्ष। यही परम अतीत है। आत्मा का हित मोक्ष ही है क्योंकि इसमें ही परम शांति है। तो ऐसे मोक्ष का बनाने वाला कौन है? साक्षात् प्रभु भी मिल जायें, उनका दर्शन हो, उनकी दिव्यध्वनि भी सुनें, तिस पर भी मेरा मोक्ष प्रभु न कर देंगे। वह प्रभु हमारा रक्षक तो है पर वह मेरा मोक्ष कर दे ऐसी स्वतंत्रता नहीं है। उनकी दिव्यध्वनि को सुनकर उनके बताये हुए पथ पर खुद चले तो मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान भी यह खुद करे। अपने आपका श्रद्धान भी यह खुद करे और अपने आपमें मग्न होने का काम भी यह खुद करे। मोक्ष का करने वाला भी यही आत्मा है। आत्मा का अभीष्ट हुआ यह खुद आत्मा। किस परिस्थिति का आत्मा? जहाँ विषयकषाय, माया, मिथ्या, निदान, संकल्पविकल्प―इन सबसे निराला केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र, जिसका कि अनुभव करने से परम विशुद्ध आत्मीय आनंद झरता है ऐसे ज्ञानस्वरूप को मानता कि यह मैं हूँ। यह मैं तो सबसे छूटा हुआ ही हूँ, सदा से मुक्त हूँ, इसी कारण इस आत्मा को शिव कहते हैं। यह आत्मा अपने ही स्वभाव से कल्याणरूप है। सर्व से निराला अपने स्वरूप अस्तित्त्व का रखने वाला केवल चैतन्यस्वभावमात्र यह मैं आत्मा हूँ―इस प्रकार सबसे मुक्त अपने स्वभाव को देखेंगे तो कर्मों से मुक्ति होगी, सब विकल्प बंधनों से मुक्ति होगी। इस कारण जो भी मुक्त हुए वे अपने आपके परिणामों से हुए, अतएव आत्मा का मित्र स्वयं यह आत्मा ही है। अन्यत्र दृष्टि इस प्रकार लगाना कि यह मेरा बैरी है, यह मित्र है, यह मेरी भूल भरी दृष्टि है। मेरे लिए तो मात्र मैं ही हूँ। यह जीव अपने आत्मस्वरूप को भूलकर जब बाह्यविषयों को अपनाता है, इन इंद्रियों को ही, इस शरीर को ही अपना सर्वस्व समझ लेता है तो समझ लीजिए कि वह खुद अपने आपका बैरी है। तो परिणामों से ही हम स्वयं अपने आपके मित्र बन सकते हैं और हम ही अपने आपके शत्रु बन सकते हैं। तो मैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप अपना परिणाम बनाऊँ, इसी से अपने आपकी भलाई है।