वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1577
From जैनकोष
अंतर्दृष्ट्वाऽऽत्मनस्तत्त्वं बहिर्दृष्ट्वा ततस्तनुम्।
उभयोर्भेदनिष्णातो न स्खलयात्मनिश्चये।।1577।।
अब आत्मा का लक्षण तकना चाहिए अंतरंग में और देह का लक्षण तकना चाहिए बहिरंग में। जैसे देह का स्वरूप जानना हो तो आँखों से देखकर देह को जानें और आत्मा का स्वरूप जानना हो तो आँखें बंदकर भीतर में उपयोग को ले जाकर जानें। ज्ञानी पुरुष आत्मा के स्वरूप को अंतरंग में देखता है और देह को बाह्य में देखता है। जब दोनों के भेद में वह प्रवीण होता है फिर आत्मा के निश्चय में नहीं रहता है। जब अपने आत्मा का स्वरूप तकना हो तो बाह्य समस्त इंद्रियों का व्यापार रोककर जिसमें नेत्रइंद्रिय प्रधान है सभी को रोकना चाहिए और नेत्रइंद्रिय को भी रोककर अर्थात् बाहर में कुछ न निरखकर, देह का भान न रखकर केवल उस एक चैतन्यज्योति ज्ञानमात्र अपने को तकता है तो वह सत्य सनातन आत्मतत्त्व को देखता है। जब आत्मा अपने आपके अंदर पहुँचता है तो इसे अद्भुत विशुद्ध आनंद प्राप्त होता है। और उस आनंद में अनुभव के कारण ही यह ज्ञानी पुरुष अपनी श्रद्धा को दृढ रखता हुआ निभा लेता है इस बात से कि बाह्य में इसकी रुचि न हो और अपने अंतस्तत्त्व में ही रमकर रहे। तो जो आत्मा और देह में भली प्रकार से भेद निरखता है वह अपने आत्मा के निश्चय में स्खलित नहीं होता।