वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1580
From जैनकोष
व्यतिरिक्तं तनोस्तद्वद्भाव्य आत्माऽऽत्मनाऽऽत्मनि।
स्वप्नेऽप्ययं यथाऽभ्येति पुनर्नांगे संगतिम्।।1580।।
आचार्य उपदेश करते हैं कि आत्मा को आत्मा के ही द्वारा आत्मा में रहकर शरीर से भिन्न ऐसा विचार करें, ऐसा दृढ़ भेदाभ्यास करें कि जिससे फिर यह आत्मा स्वप्न में भी शरीर की संतति को प्राप्त नहीं होता और स्वप्न में भी शरीर में आत्मबुद्धि न करे। इस प्रकार भेदविज्ञान का दृढ़ अभ्यासी बने। स्वप्न में भी यह दृष्टि बन जाय कि जो शरीर हे वह मैं हूँ ऐसा होता है जागृत अवस्था में या जैसी जिसने वासना बनाया है स्वप्न में उस वासना के अनुरूप स्वप्न आता है, कल्पनाएँजगती हैं और कभी-कभी जैसे जिसको यात्रा में बहुत चित्त है या मंदिर के दर्शन में बहुत चित्त है उसे स्वप्न में भी मंदिर दिखते हैं, यात्रा दिखती है, क्षेत्र दिखते हैं और यहाँ तक किजिसको अपने आत्मा के अनुभव की धुनलगी है और समय-समय पर आत्मा के अनुभव की दृष्टि बनती है उसे स्वप्न में भी आत्मा का अनुभव बन जाता है। तो स्वप्न में भी इस शरीर से भिन्न अपने आत्मतत्त्व का ही अनुभव करे तो समझिये कि वह तत्त्वज्ञानी है और भेदविज्ञान का उसने दृढ़तम अभ्यास कर लिया है।