वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1599
From जैनकोष
अनादिविभ्रमान्मोहादनभ्यासादसंग्रहात्।
ज्ञातमप्यात्मनस्तत्त्वं प्रस्खलत्येव योगिन:।।1599।।
योगी मुनि आत्मा के स्वरूप को जानते हुए भी अनादिकाल से ऐसे भ्रम में लगे हैं कि उसकी वासना से तथा मोह के उदय से अभ्यास अभाव से तथा उस तत्त्व के परिचय करने अप्रयत्न से यह जीव मार्ग से च्युत हो जाता है याने योगी मुनि एक बार यथार्थस्वरूप को जान भी ले तो कुछ कारण ऐसे बनते हैं कि जिनसे वे मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं। यह कथन करके आचार्य महाराज इस बात के लिए सावधानी देते हैं कि किसी भी प्रकार तत्त्व का परिचय होने पर फिर उस परिचय से न गिर जायें। उस तत्त्व की यादगारी बने रहे, इसके लिए प्रयत्न बनाये रहना चाहिए और इसका प्रयत्न यह हे कि जो जाना गया तत्त्व है उस तत्त्व का बराबर निर्णय बना रहे, मैं शरीर से भी न्यारा, कर्मों से भी न्यारा रागादिक भावों से भी जुदा ज्ञानानंदस्वरूप चैतन्यतत्त्व हूँ और फिर भेदविज्ञान के द्वारा यह निर्णय करके जो अनात्मतत्त्व है उसको छोड़े और जो आत्मस्वरूप है उसमें अपनी दृष्टि जमायें, ऐसा प्रयत्न बराबर जारी रखना चाहिए अन्यथा किसी भी समय मोह के वेग में ऐसी परिस्थिति बन जायगी कि बहुत कठिनाई से कमाया हुआ तत्त्व हमारे उपयोग से छूट जायगा। देखिये संसार में धन वैभव की कोई कीमत नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रकट भिन्न चीज है। इससे आत्मा का कोई हित नहीं है, और फिर साथ ही यह भी एक अपना निर्णय रखिये जो कि यथार्थ तत्त्व की बात है कि बाह्य धन वैभव संपदा आदिक का समागम जितना पुण्य का उदय है उसके अनुसार रहता है। यदि पुण्य का उदय है तो वह अपने आप सहज ही मिलता है और यदि उदय प्रतिकूल हे तो जिस चाहे बहाने वह चला जाता है। तो हिम्मत अपनी इतनी बनाना चाहिए कि यह धन वैभव आये अथवा न आये, उससे हमारे आत्मा का कुछ भी हित नहीं है, मुझे तो तेरे अपने आत्मा की सुध बराबर बनी रहे, यही एक उत्कृष्ट वैभव है। यदि यह न प्राप्त किया जा सका तो तीन लोक की संपदा भी निकट मौजूद हो तो वह सब व्यर्थ है। ऐसा अपना निर्णय बनाकर परतत्त्वों से अपना उपयोग हटाएँ और अपने आपके स्वरूप में अपना उपयोग जमायें। सो योगी पुरुष निरंतर सावधान रहा करते हैं।