वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1601
From जैनकोष
साक्षात्कर्तुमत: क्षिप्रं विश्वतत्त्वं यथास्थितम्।
विशुद्धिं चात्मन: शश्वद्वस्तुधर्मे स्थिरीभवेत्।।1601।।
अपना परिणाम निर्मल बना रहे―इसके अर्थ यह कर्तव्य है कि जो ध्यान के लिए उत्तम तत्त्व निर्णीत होता है आत्मा का सहज ज्ञान और आनंदस्वरूप, जो सबसे निराला है उस ध्यान के विषय में आत्मा के सहज ज्ञानस्वरूप में मन एकाग्रता से लगा रहे, यह आवश्यक है। इसमें विघ्न के अनेक कारण हैं। आते हैं लेकिन विघ्न के कारण हम अपना ज्ञानाभ्यास ऐसा बनाये रहें कि वे कारण हमें झकोर न सकें। कारण आते हैं बहुत। एक तो रागादिक भाव उत्पन्न करने में निमित्तभूत बाह्यपदार्थ सामने आ जायें, कर्मों का उस प्रकार का समय आ जाय, अपने भीतर बसी हुई वासना जागृत हो जाय, ऐसे अनेक कारण आते हैं जो हमारे ध्यान में विघ्न रूप होते हैं, उनको दूर करने के लिए कर्तव्य एक यह है कि जो हमने वस्तु का स्वरूप निर्णय किया है, आप लोग कुछ थोड़ा सा ध्यान करें कि जो अपना घर छोडकर यात्रा में निकले हैं तो उसका लक्ष्य क्या है कि हमारे चित्त में धर्म की भावना आये, दर्शन करके, उन क्षेत्रों की वंदना करके जहाँ से मुनीश्वर मुक्त हुए हैं। हमारे चित्त में धर्म की भावना आये। वह धर्म की भावना क्या है ऐसा विचार बन जाय, ऐसा उपयोग रहे कि मैं सबसे निराला केवल ज्ञानानंदस्वरूप मात्र हूँ। मेरा पहिचाननहार इस लोक में कोई दूसरा नहीं हे, इस कारण जगत में किससे अपना संबंध बढ़ाना, किससे राग अथवा किससे द्वेष करना? समस्त परद्रव्यों से उपेक्षा रखें और अपने आपके इस ज्ञानानंद स्वरूप में स्थिर होने का यत्न करें, यह धर्मध्यान की सिद्धि का एक खासा उपाय है। देखिये इस क्षेत्र में अथवा कर्मभूमि के जगत में वियोग, दु:ख, वेदना, कष्ट, परीषह, विडंबनाएँ अनेक आती हैं। लेकिन इन सब विपत्तियों का आगमन हमारे भले के लिए है। जैसे भोगभूमि में स्वर्गों में इष्ट वियोग नहीं होता, कोई शारीरिक वेदना नहीं होती, किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहता तो वे लोग मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। उनकी गति अति उच्च नहीं बन सकती। तो ये परीषह, उपद्रव हमारे भले के लिए हैं। अपने आपको तौलें, परिचय करें, हम जिस तत्त्व की हामी भरते चले आये हैं, मैं सबसे निराला ज्ञानमात्र हूँ, मेरा ज्ञाता द्रष्टा रहना स्वभाव है, जगत में मेरा कहीं कुछ नहीं है। यहाँ पर अनेक प्रकार के कष्ट हैं, उन कष्टों से अज्ञानी पुरुष तो घबड़ा जाते हैं, पर सम्यग्दृष्टि जीव इन विपदावों से अपने स्वरूप से चलित नहीं होता, सर्वज्ञ ज्ञाता द्रष्टा रहता है। इस प्रकार का जो अपना दृढ़ परिणाम बनाते हैं वे योगीश्वर ही धर्मध्यान के वास्तविक पात्र होते हैं।