वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1602
From जैनकोष
अलक्ष्यं लक्ष्यसंबंधात् स्थूलात् सूक्ष्मं विचिंतयेत्।
सालंबाच्च निरालंबं तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा।।1602।।
तत्त्वज्ञानी पुरुष पहिले तो अपने लक्ष्य का निर्णय करे और वह लक्ष्य जैसा कि उसका जो ज्ञान और आनंद स्वरूप है वह सही रूप में विकसित हो जाय तो ज्ञान और आनंद भाव के साथ किसी विकार तरंग का संबंध नहीं रहता। कोई रागद्वेष न आये, केवल ज्ञान का परिणमन होना यही लक्ष्य में आता हो। यही लक्ष्य में आये, देखने में आये, समझाने में आये, पर इस लक्ष्य से, इस समझ से इतनी और मजबूती बनायें कि लखा हुआ भी लक्ष्य में न रहे, किंतु उस लखे के द्वारा कोई अलौकिक अलखनिरंजन ज्ञानतत्त्व समझ में आये तो तत्त्वज्ञानी पुरुष प्रथम तो लक्ष्य के संबंध से अलख को जाने और स्थूल पदार्थ से खिसककर सूक्ष्म चेतन का चिंतन करे और फिर किसी ध्येय का आलंबन जो ले रहे थे सो चलने दे, फिर ध्यान के आलंबन को लेकर उससे फिर निरालंब वस्तुस्वरूप में तन्मय हों, याने उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्म यत्न करें। देखो जितना भी गहरा चिंतन होगा, जितना हमारे सूक्ष्म अर्ंतमग्न होने का यत्न होगा उतनी ही हमारी परिणति की विशेषता होगी, उतना ही हमारा अंत: परिश्रम विशेष होगा। और जब यह हमारा ज्ञायकभाव, ज्ञानस्वरूप परमात्मतत्त्व जो कि स्वयं सहज पहिले से ही सनातन मौजूद था वह एकदम प्रकट होगा। इसे कहते हैं टंकोत्कीर्ण ज्ञायकभाव की परिणति।
जैसे छेनी से उकेरी हुई प्रतिमा निश्चल रहती है, स्वयं प्रकट होती है इसी प्रकार ज्ञान के अभ्यास से कभी निजी परमात्मतत्त्व सहज प्रगट होता है और निश्चल बनता है, उसे बनाने के लिए कहीं बाहर में कुछ नहीं करना है। पत्थर में जो मूर्ति प्रकट होगी वह मूर्ति उस ही पत्थर के अंदर मौजूद है। उस मूर्ति को बनाने के लिए बाहर से कुछ लाना नहीं पड़ता। कारीगर को वह मूर्ति उस पत्थर में दिख गई जिसे प्रकट करना है। अब वह कारीगर उस मूर्ति को ढकने वाले आवरण हटाने का प्रयत्न करता है। उस मूर्ति का आवरण करने वाले जो पत्थर हैं उनको मोटी छेनी से हटाता है। वह उस कारीगर का प्रथम प्रयत्न है। फिर दूसरी बार के प्रयत्न में बहुत छोटी छेनी लेकर मूर्ति के ऊपर के आवरण को हटाता हे, फिर तीसरी बार के प्रयत्न में अत्यंत मोटी छेनी लेकर सूक्ष्म से सूक्ष्म आवरणों को हटाता है। इस बार के प्रयत्न में उसकी अत्यंत सावधानी रहती है जिसे देखकर लोग यह कह देंगे कि दो तीन दिन से तो यह कुछ काम ही नहीं कर रहा है। लेकिन इस तीसरे बार के प्रयत्न में उसे बड़ी बुद्धि लगानी पड़ रही है। यों वह मूर्ति जो कि उस पत्थर के अंदर मौजूद थी, तैयार हो जाती है। तो उस मूर्ति को कारीगर ने नहीं बनाया है। मूर्ति तो उस पत्थर के अंदर पहिले से विराजमान है, उसने तो केवल उस मूर्ति के आवरण करने वाले पत्थरों के हटाने-हटाने का ही काम किया है। उस मूर्ति में कहीं बाहर से लाकर लगाया कुछ नहीं।इसी तरह हम सबके अंदर वह परमात्मत्त्व जो सिद्धरूप में कभी प्रकट होगा वह परमात्मत्त्व सबके अंदर विराजमान है, कोई आत्मा परमात्मातत्त्व को बनाता नहीं है किंतु उस परमात्मतत्त्व आवरक करने वाले जो विषयकषाय के परिणाम हैं, शरीर का संबंध है, कर्मों का बंध है उसे हटाया जाता है।कर्मबंध हटा, शरीर का संबंध हटा और रागादिकभाव हटे तो वह परमात्मतत्त्व स्वयं अपने आप प्रकट हो जाता है।
परमात्म की दिशा में प्रयत्न चलेगा वह पहिले एक मोटेरूप में प्रयत्न चलेगा। मोटे रूप में यह जान जायगा कि लो ये समस्त पदार्थ धनवैभव संपदा आदिक अनित्य हैं, भिन्न हैं, इनसे मेरा कोई संबंध नहीं हे। देखो इस क्षण विभावों को अपने से भिन्न बनाने का यह एक मोटा प्रयत्न है, अभी इसे और प्रयत्न करने होंगे। इस प्रयत्न में इसे कुछ सफलता प्राप्त हुई। अब जरा और भीतर चलें तो ऐसा विचारें किमुझमें जो रागादिक भाव उत्पन्न होते हैं ये मेरी चीज नहीं हैं, इन स्वरूप मैं नहीं हूँ।जैसे कि दर्पण के सामने जो भी चीजें आ जाती हैं वे सब चीजें प्रतिबिंबित हो जाती हैं, वे चीजें जो भी दर्पण में प्रतिबिंबित हुई वे दर्पण की चीज नहीं हैं, यद्यपि वह प्रतिबिंब दर्पण का परिणमन है लेकिन सामने बाहर में उपाधि का निमित्त पाकर प्रतिबिंबित होता है, वह प्रतिबिंब दर्पण की चीज नहीं है, इसी प्रकार उस-उस जाति की कर्मप्रकृतियों का उदय होने पर आत्मा में रागद्वेषादिक का परिणमन होता है। यद्यपि यह परिणमन उस शरीर में आत्मा का है तथापि ये रागादिक विभाव आत्मा की निजी चीज नहीं हैं, आत्मा के स्वभाव से आत्मा में बने रहते हों ये रागादिक विभाव ऐसा नहीं है। ये रागादिक परिणमन होते तो हैं आत्मा में, लेकिन कर्मोदय की उपाधि का निमित्त पाकर होते हैं। तब यह ज्ञानी जीव दूसरे प्रयत्न का विचार कर रहा है कि ये रागद्वेष विभाव मेरे नहीं हैं, मैं इनसे निराला हूँ, मेरा स्वभाव तो आनंद को प्रकट करने वाला है और यह रागादिक विभावों की प्रकृति आत्मा को कष्ट में, उलझन में डाल देने वाले हैं। कहाँ तो मेरा आनंदस्वरूप और कहाँ ये दु:खस्वरूप रागादिकभाव, ये मैं नहीं हूँ। दूसरे प्रयत्न में सम्यग्दृष्टि कारीगर ने जो परमात्मतत्त्व का निर्णय करने के लिए चला है, रागादिक विभावों से अपने को दूर करता है।तीसरे प्रयत्न में यह सम्यग्दृष्टि जीव निरखता है कि मेरे में जो विचार विकल्प छुट पुट जानकारी उत्पन्न होती हैं ये मेरे स्वरूप नहीं हैं, मैं तो एक विशुद्ध ज्ञानस्वरूप ज्ञानस्वभावी इन सबसे निराला हूँ। अब देखिये तीसरे प्रयत्न में सम्यग्दृष्टि पुरुष इन विकल्प विचारों को छुटपुट ज्ञानों को भी अपने से दूर करता है। इस प्रकार से आत्मा में आवरण करने वाले समस्त रागादिक विभाव दूर हो जाते हैं। तो यह अनंत ज्ञान, अनंत आनंद को लिए हुए यह परमात्मतत्त्व स्वयं सहज प्रकट हो जाता है। और प्रकट होकर फिर निश्चल बना रहता है। तो यह परमात्मा टंकोत्कीर्णव्रतप्रतिमा की तरह पूर्ण निश्चल है और स्वयं सिद्ध है।
परमात्मतत्त्व का ध्यान कराने के लिए यह योगी पुरुष लक्ष्य से अलक्ष्य में पहुँच रहा है। अभी तक जो पर का आलंबन ले रहा था उनसे हटकर अब निरालंब ज्ञानस्वरूप में प्रवेश कर रहा है। यहाँ यह बताया गया है कि दृष्टि पदार्थ के संबंध से अदृष्ट का ध्यान करना। तो दृष्ट पदार्थ क्या हुआ? जैसे हम अरहंत को जानते, सिद्ध को जानते, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी को जानते, इन्हें हम किसी प्रकार देख तो लेते हैं ना। तो यह सब अदृष्ट का ध्यान है। अदृष्ट का ध्यान करके अर्थात् अरहंत और सिद्ध का ध्यान करके कुछ और आगे उतरे और अपना जो सहज ज्ञानस्वरूप है जो कि अदृष्ट है उस अदृष्ट में कुछ आये, तो अदृष्ट से अदृष्ट में आये, और परमेष्ठी का आलंबन लेकर जो हम अपना ध्यान बना रहे थे वह ध्यान तो एक आलंबन सहित था। अब उस आलंबन को छोडकर एक मात्र ज्ञानस्वरूप के अनुभव में उपयोग रहे। इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुष को उपदेश किया है आचार्यदेवों ने कि इन सबसे हटकर अपनी इस अदृष्टि में आयें। देखिये हमारा जो दृष्ट का आलंबन होता है वह आलंबन हमें चैन से नहीं रहने देता। किसी में हमारे प्रीति जगती हे तो वह भी हमारे क्लेश के लिए है। चिंता करके करेंगे क्या? कुछ बंध जायेंगे, और बंधकर हम अपना आराम खो देंगे और कल्पना में हम दूसरे के आराम के लिए बहुत-बहुत कष्ट सहेंगे। राग में फल मिला क्या, अपना आराम खो देंगे, दूसरों के आराम के लिए बड़े-बड़े कष्ट सहेंगे। फल क्या मिला, अपना आराम खोया और परिश्रम में लगे, कष्ट में लगे।
किसी पुरुष में द्वेष करने में भी लाभ क्या मिला? द्वेष किया जाता हे किसी राग के कारण, किसी विषय में राग हो और उस विषय में कोई दूसरा बाधा डाले अथवा बाधा तो नहीं डालता, वह तो अपने स्वार्थ से अपनी शांति के लिए अपनी चेष्टा करता है। अगर हम उसे बैरी समझ लेते हैं तो ऐसे बैरी से भी द्वेष करने से हमको तत्काल तो अशांति हुई, और फिर हमारी बुद्धि हरी गई। तो बुद्धि का कुछ सदुपयोग न कर सके। उससे भी हम कष्ट में ही आयेंगे। दूसरे जिसे अपना बैरी मानाहै उसकी ओर से भी विपत्ति की बात आ सकती है, वह भी अपना बदला चुकाने के लिए सोचेगा। तो द्वेष करके भी हमने क्या लाभ उठाया? देखते जाइये―संसार के किसी भी भाव में, किसी भी परिणाम में अपने आत्मा की भलाई नहीं है। एक जो अधिक हंसी की, मौज की प्रवृत्ति रहा करती है उससे भी कुछ लाभ की बात नहीं मिलती। वे सब एक विकल्प हैं, बरबादी के ही परिणाम हैं, इनसे आत्मा का कुछ भी हित नहीं होता बल्कि उन परिणामों से अपने में कायरता आती है। उससे अपनी हानि ही हुई। अन्यथा तो यह विचार करना चाहिए कि हम अपने स्वरूप को जानें कि मेरा स्वरूप अमर है, अविनाशी है। मुझे यहाँ किसी का डर नहीं है, यथाशक्ति ऐसी भावना बनायें। किसी पदार्थ से ग्लानि करके भी आत्मा ने क्या लाभ पाया? आत्मा में एक आकुलता ही मची। तो संसार के ये सभी भाव, ये सभी समागम आत्मा के अहित के लिए हैं, इनसे अपनी बुद्धि हटायें और आत्मा का जो सहज ज्ञानानंद स्वरूप है उसमें रमने का अधिकाधिक यत्न करें, इसमें ही हम आपकी भलाई है। यही धर्म का पालनहै। यही हम आपका साथ निभायेगा, इस ही परमात्मस्वरूप में अनुराग करें और इसके लिए अरहंत सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान लगाकर धर्मध्यान में अपना उपयोग लगायें।