वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1612
From जैनकोष
अनेकपदविन्यासैरंगपूर्वै: प्रकीर्णकै:।
प्रसृतं यदि्वभात्युच्चै: रत्नाकर इवापर:।।1612।।
ज्ञान 5 प्रकार के होते हैं―मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। मतिज्ञान नाम है इंद्रिय से और मन से प्रथम बार जो जानता है उसका और मतिज्ञान से जानकर कुछ और विशेष बात समझना इसका नाम है श्रुतज्ञान और अपने आत्मा के द्वारा पुरानी आगे की बाहर की चीजों का, पौद्गलिक पदार्थों का जानना अवधिज्ञान है। दूसरे मन की बात जान लेने को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। जो समस्त विश्व को स्पष्ट जान जाता सो केवलज्ञान है। अब इन 5 ज्ञानों में से हम आपको कल्याण के लिए किस ज्ञान का आलंबन लेना चाहिए। प्रकरण चल रहा है कि हम आपको श्रुतज्ञान का सहारा बहुत बड़ा सहाराहै। श्रुतज्ञान में समस्त शास्त्र, समस्त विद्याएँ ऐसी कोई कला नहीं बचती जो श्रुतज्ञान में न हो। भगवानकी दिव्यध्वनि में जो बात खिरी है उसे गणधरदेव ने झेलाहै, द्वादशांग रूप रचना की है फिर आचार्यों ने जिसमें जैसी योग्यता हुई उन्होंने श्रुतज्ञान को धारण किया और जितने शास्त्र हैं वह श्रुतज्ञान का करोड़वां हिस्सा है। और जब ये आज के शास्त्र जब इतने बड़े विस्तार वाले ज्ञान की चीज है वह करोड़वां हिस्सा पड़ता है तो समझो कि जैन धर्म का शास्त्र कितना महानहै। तो वह श्रुतज्ञान अनेक पदों का विन्यास है जिसमें ऐसे अंग और पूर्व का ज्ञान 11 अंग 14 पूर्व, इतने सब समूह का नाम श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान अक्षरों से तो द्रव्यश्रुत कहलाता और भावश्रुत की विद्या भावश्रुत कहलाती। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष जो आज्ञाविचय धर्मध्यानी है वह भगवान की आज्ञा को प्रमाण मानकर सब श्रुतज्ञान का चिंतन करता है। आचारांग मेंमुनियों के आचार का वर्णन हैं, संक्षेप में सब सूत्रों का वर्णन है। ऐसे अनेक विषयों में बहुत-बहुत विस्तार से वर्णन है। वह श्रुतज्ञान भगवान की आज्ञा है। ज्ञानीपुरुष भगवानकी आज्ञा को बार-बार शिरोधार्य करता है। जिनेंद्र भगवान के वचनों में ज्ञानीपुरुष को संदेह नहीं है और युक्ति से भी, अनुभव से भी सब तत्त्वों का निर्णय तो कर लेता है, मगर उसमें यह प्रतीति बनाये रहता कि भगवान जिनेंद्रदेव ने ऐसा कहा है इसलिए यह पूर्ण प्रकरण हो।