वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1613
From जैनकोष
मदमत्तोद्धतक्षुद्रशासनाशीविषांतकम्।
दुरंतघनमिथ्यात्वध्वांतधर्मां शुमंडलम्।।1613।।
यह श्रुतज्ञान ऐसी यथार्थ विद्यावों का निधन है यह श्रुतज्ञान के बल से जो अन्य छुद्र शासन है एकांतवादियों का जो मत है उनको यह श्रुतज्ञान नष्ट कर देने वाला है अर्थात् स्याद्वाद के शासन से एकांत मत का शासन सब नष्ट हो जाता है। एकांतवाद के मायने यह हैं कि वस्तु को एक धर्म मानकर रह जाना। जैसे जीव नित्य भी है, अनित्य भी। जीव का कभी नाश नहीं हो सकता इस कारण तो नित्य है और जीव की अवस्था कर समय नई-नई बन रही है इस कारण जीव अनित्य है। अब उसमें से कोई मत तो एक नित्य ही हैं ऐसा मान लेगा। ऐसा द्रव्य है, अविकारी है, सदा रहता है, उनका संबंध अवस्थावों से नहीं अर्थात् एक मत तो नित्य का एकांत मान लेगा और एक मत अनित्य का एकांत मान लेगा। जो यह मानते हैं कि जीव कुछ है नहीं, नया-नया जीव हर समय बनता रहता है।बना और बिगड़ा, यह चीज उसमें बनी रहती है। तो ऐसा नित्य एकांत और ऐसा एकांत सब मतों का खंडन करने वाला यह जैन शासन है, श्रुतज्ञान है, चाहे यह कहो कि सब मतों का इसने खंडन किया और चाहे यह कहो कि सब मतों का इसने समर्थन किया। जैसे चार अंधे एक हाथी का स्वरूप जानने चले। हाथी था सीधा तो छू करके जानने लगे कि हाथी कैसा है? एक को पकड़ने में पैर आये तो वह सोचता है कि हाथी खंभारूप है, एक के हाथ में सूंड पड़ी तो वह सोचता है हाथी मूसल जैसा है, एक के हाथ में कान पड़े तो वह सोचता है कि हाथी सूप जैसाहै, एक के हाथ में पेट पड़ा तो वह सोचता है कि हाथी ढोल जैसा है। वे चारों के चारों परस्पर में झगड़ने लगे। जिसने जैसा हाथी का स्वरूप जाना वह वैसा हाथी का स्वरूप बताता। इतने में एक सूझता व्यक्ति आया। बोला भाई क्यों झगड़ते हो? सभी ने अपनी-अपनी बात कही। तो वह सूझता व्यक्ति कहता है कि तुम सब ठीक कह रहे हो, पैरों की दृष्टि से हाथी खंभा जैसा है, सूंड की दृष्टि से हाथी मूसल जैसा है, कान की दृष्टि से हाथी सूप जैसा है और पेट की दृष्टि से हाथी ढोल जैसा है। तो ऐसे ही समझ लो यह जैनशासन सभी मतों का समर्थन करने वाला भी है और सभी मतों का खंडन करने वाला भी है। यह श्रुतज्ञान छुद्र मतों को दूर करने वाला है तो ऐसे मिथ्यात्व को दूर करना खंडन मंडन के समान है। जैसे सूर्य सारे अंधकार को दूर कर देता है इसी प्रकार से यह जैन शासन मिथ्यात्व अंधकार को दूर कर देता है। जैन शासन ने ही तो यह बताया है कि जीव की जाति चैतन्य की है, पुद्गल की जाति जड़ की है। जीव पुद्गल का इस समय संबंध बन तो रहा है, पर यह संबंध इसका स्वभाव नहीं है, इसका असली रूप नहीं है, भेदविज्ञान कराया है श्रुतज्ञानी ने ही तो कराया है। भेदविज्ञान से मिथ्यात्व दूर होता है। मतिज्ञान के प्रताप से मिथ्यात्व का अंधकार दूर होता है। तो हम आपको मतिज्ञान का एक बहुत बड़ा आलंबन है। जो शास्त्रों में बात है उसका बड़ा ज्ञान हो तो उसका बहुत बड़ा सहारा है कि हम संकटों से दूर हो सकते हैं। अब देखिये भगवान हम आप सबका, हम आप सबके अंदर है, उसे ही निरखना है, पर जब हम उसे नहीं निरख पाते, चाह है उसके निरखने की तो हम जगह-जगह डोलते हैं, यात्राएँकरते हैं, पर्वतों में डोलते हैं, अनेक कष्ट सहते हैं, सिर्फ आँखों से देख लिया कि यह जगह है, मगर पूरा तो पड़ेगा आत्मस्वरूप के दर्शन से ही। यात्रा तो पहिली सीढ़ी है। आखिरकार तो आत्मा में ही विराजमान जो आत्मा का स्वरूप है, परमात्मतत्त्व है, उसके ध्यान से ही कल्याण होगा। अपने मैं मौजूद अपने स्वरूप पर दृष्टि हो तो जगह-जगह भटकने की क्या जरूरत? यात्रा करने के बाद भी संतोष मिलेगा तो अपने आपके आत्मा में संतोष मिलेगा, बाहर से न मिलेगा। बाहर कहीं से धर्म नहीं आता, वह तो अंतर से ही प्रकट होगा। में अपने असली स्वरूप को जानूँ, ये तो हमारे एक बाह्य साधन है।
बाहुबलि की मूर्ति के दर्शन करें तो दर्शन करके उनका आकार प्रकार स्पष्ट है कि सब बातें सामने आती हैं, देखो बाहुबलि ने चक्रवर्ती को जीत डाला, छह खंड की विभूति चक्रवर्ती ने पायी, उस पर विजय पायी बाहुबलि ने, उस पर विजय करके सब संपदा हाथ आयी, उस समय नाम भी बहुत ऊँचा बढ़ गया, तिस पर भी सब संपदा को त्रण के समान त्यागकर विरक्त हुए और आत्मा में आत्मा का ध्यान किया जिसके प्रताप से उन्होंने निर्वाण पद पाया। यह बात ख्याल करने के लिए यहाँ पर आये हैं पर कल्याण होगा तो आत्मस्वरूप के ज्ञान से होगा। उसको बताने वालाहै श्रुतज्ञान। तो श्रुतज्ञान की बहुत बड़ी महिमा है। हम आपको सहारा श्रुतज्ञान का है। चाहिए यह कि हम अधिक से अधिक सुनकर, बांचकर, ज्ञान की आराधना करके हर प्रकार से अपना ज्ञान बढायें। यही सार है, इसके अलावा जितने प्रपंच हैं वे सब घात करने वाले हैं। यह श्रुतज्ञान मिथ्यात्व को दूर करने के लिए सूर्य की किरणों के समानहै।