वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 162
From जैनकोष
कलेवरमिदं न स्यादधि चर्मावगुंठितम्।
मक्षिकाकृमिकाकेभ्य: स्यात्त्रातुं कस्तदा प्रभु:।।162।।
चर्मावरण के अभाव में शरीर की मांसभक्षियों से अरक्षा―यदि यह शरीर बाहर के चमड़े से ढका न होता तो मक्खी, कीड़े, कौवे ये सब इस पर टूट पड़ते होते और उनसे रक्षा करने में फिर कोई भी समर्थ न होता। जैसे देखा होगा कि पशु का, बूढ़े बैल का, गधे का, घोड़े का, शरीर कि जिसका चमड़ा जगह-जगह छिला होता है, जगह-जगह मांस दिखता है, मांस जमीन पर टपकने के सम्मुख है, ऐसे पशु पर चारों ओरसे पक्षी टूट पड़ते हैं। वहाँ वह पशु क्या करे, कौन रक्षा करे, वह दु:खी होता है। कल्पना करो कि हम आपके शरीर के ऊपर यह चमड़े का चादर न लगा होता तो इसका प्रकट रूप कैसा होता? कभी किसी हाथ में किसी जगह 2-4 फुंसियां हो तो जायें, इसी से ही बड़ी घृणा सी लगती है और दूसरों की फुंसियों को दूसरा निरख नहीं सकता, खुद के शरीर में हो गया रोग तो इस शरीर को कहाँ डालें, स्वयं सह लेंगे, मगर दूसरों के शरीर में ऐसा खून टपकता हो, फुंसियाँ अधिक हों ऐसा ही ग्लानि का रूप सामने हो तो उसे पसंद नहीं करता। यदि इस शरीर पर यह चमड़ा न ढका होता तो मक्खी, कीड़ा, कौवा आदिक से इस शरीर को बचाने के लिए इसकी रक्षा करने के लिए कौन समर्थ होता?
मोह के बिना शरीर की अरक्ष्यता―यह तो एक सीधी सी बात कही गयी है। अब अध्यात्मत्व देखिये―इस घृणास्पद अपवित्र शरीर को निरखकर ज्ञानी विवेकी सत्पुरुष जब इस शरीर को दूर से ही छोड़ देते हैं, अपने उपयोग में इसको स्थान नहीं देते हैं तब फिर इस शरीर की कौन रक्षा करे अर्थात् शरीर से वैराग्य जग जाय तो फिर यह शरीर टिक नहीं सकता। कभी भी निकट काल में इस शरीर के फंदे से यह जीव अलग हो जायेगा।
मोहियों की मोहवृत्ति में चर्म का उपकार―यह सब जो लौकिक व्यवहार राग व्यवहार, यह संसार चल रहा है इसमें इस शरीर, पर लगे हुए चमड़े का भी बड़ा सहयोग है। इसके कारण राग बढ़ता है, क्योंकि चमड़े के भीतर जो कुछ शुचि अशुचि पदार्थ हैं वे तो इन इंद्रियविषयाभिलाषी पुरुषों की नजर में रहते नहीं है, किंतु ऊपर से ही इतना साफ नजर आता है और ऊपर से तो कुछ है भी साफ सा। यदि कल्पना में ही यह आ जाय, कोई अपनी नाक को खुजा रहा हो, उसे ही देखकर चित्त में यह आ जाय कि यहाँ भरा तो है यह मल, तो कल्पना में यह बात समझ में आते ही राग में अंतर हो जाता है। भूदरदास जी ने कहा है ना, ‘दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़ पीजड़ा देह। भीतर या सम जगत् में और नहीं घिन गेह।।’ खूब निरख लो―इस शरीर के समान घिनावना घर और कहीं न मिलेगा। ये चौकी, घड़ी, लालटेन कांच जो-जो कुछ दिख रहे हैं ये सब शुचि है, इनमें अशुचिता का कारण नहीं है लेकिन यह शरीर इन अजीवों से भी बदतर हैं, इतना बुरा हाल है। प्रथम तो ये सब स्थावर शरीर है। स्थावर शरीरों में हड्डी नहीं होती। जैसे पृथ्वी, जल, आग, वायु और वनस्पति ये कितने सुहावने लगते हैं, किंतु यह त्रसकाय, कीड़ों मकौड़ों का शरीर हम आपका शरीर इसमें शुचिपने का नाम ही नहीं है। मूल से अंत तक सारा शरीर अशुचि पड़ा हुआ है, इस शरीर पर चमड़ा न होता तो यह खुद को ही बड़ा भार सा लगता और इसे कीड़ा पक्षी आदिक भी सब चोट ले जाते।
उभय या शरीर की अरक्षा―ज्ञानीपुरुष तो ऐसे ऊपर के चापड़े शरीर मुद्रा को निरखकर उसमें आसक्त नहीं होते हैं जैसे अशुचि पदार्थ ऊपर निकल आये मांसादिक तो पक्षियों से इसे बचाने के लिए कौन समर्थ है? अर्थात् सामर्थ्य न हो पायेगी किसी की भी कि किसी के शरीर को उस आक्रमण से बचा ले। चारों ओर से पशु और पक्षी मांस-भक्षी जीव इस शरीर पर टूट पड़ते हैं, इसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता तो अब यहाँ अध्यात्मयोग की बात निरखिये जो अध्यात्मयोगी संत इस शरीर को अपवित्र जानकर इससे परम उपेक्षा करके अलग रहते हैं उपयोग में, अब उस शरीर की भी कौन रक्षा करे? वह शरीर भी शीघ्र विलय हो जायेगा और आगे के लिए भी कभी इसे शरीर न मिल सकेगा। केवल सिद्ध सर्वज्ञ और अद्भुत आनंद को भोगने वाला ही रहेगा।