वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 163
From जैनकोष
सर्वदैव रुजाक्रांतं सर्वदैवाशुचेर्गृहम्।
सर्वदा पतनप्रायां देहिनां देहपंजरम्।।163।।
देह के तीन ऐब―इस जीव को देह को रूपी पिंजड़ा सदा ही रोग से व्याप्त रहा है, सदा ही अशुद्धताओं का घर बना रहता है और सदा ही पतन होने के स्वभाव वाला है। इस देह में ये तीन ऐब बताये गये हैं इस श्लोक में। प्रथम ऐब तो यह है कि शरीर रोगों से भरा है। प्रथम तो देह ही रोग है। आत्मा को बरबाद करने वाले फिर देह में अनेक रोग पड़े हुए हैं। वात, पित्त, कफ की समानता बनी रहे ऐसा होना तो कठिन सी बात रहती है ना। कुछ न कुछ विषमता रहा ही करती है तब वहाँ रोग उत्पन्न होता है। दूसरा ऐब है इस देह में कि यह अशुचि पदार्थों का घर बना हुआ है। जैसे घर में सब लोग रहते हैं ना ऐसे ही इस देह में अशुद्ध अपवित्र पदार्थ रहा करते हैं, तीसरा ऐब है इस देह का कि यह मरण कर जाने वाला है। यदि ये मनुष्य न मरते होते तो आज क्या हाल होता? पैदावार तो बराबर चलती रहती और मरण किसी का न होता तो फिर क्या हाल होता। प्रथम तो अभी भी यदि सभी मनुष्य खड़े न रहें, लेट जायें तो यहीं जगह सबको लेटने को न रहेगी। अभी यहाँ इतने बैठे हैं, यदि सब लेट जायें तो यहीं इन सबका समाना कठिन हो जायेगा, फिर मरण न करे कोई, सभी जीवित रहे तो कहीं ठिकाना ही नहीं मिलता। तो देह में तीसरा ऐब यह है कि वह सदा पतन की ओर उन्मुख रहा करता है। यों यह देहरूपी पिंजड़ा 3 ऐबों से भरा हुआ है―रोग अशुद्धता और मरण।
शरीर की प्रीति में विडंबना―भैया ! कभी भी यह संभावना और शंका न कीजिए कि किसी भी काल में तो यह शरीर उत्तम और पवित्र हो जाता होगा। कभी कदाचित् हो जाय देव शरीर पाकर, लेकिन वहाँ भी दु:ख बहुत पड़ा हुआ है और फिर सदा रहने वाला नहीं है। उसका भी मरण होगा। ऐसे असार शरीर का स्वरूप समझकर इसे प्रीति हटाओ। प्रीति लगावो अपने आत्मा के सहजस्वरूप में जो सदैव अपने पास है, जिसकी दृष्टि न होने से संसार की विडंबनाएँ बनती हैं और जिसकी दृष्टि होने पर ये विडंबनाएँ समाप्ति हो जाती हैं, उस पवित्र निज अंतस्तत्त्व की उपासना करने में ही अपना कल्याण है।