वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1630
From जैनकोष
निर्द्धूय कर्मसंघातं प्रबलध्यानवह्निना।
कदा स्वं शोधयिष्यामि धातुस्थिमिव कांचनम्।।1630।।
फिर ऐसा विचार करें कि जैसे मिट्टी में मिला हुआ स्वर्ण अग्नि से शोधने से शुद्ध कर लिया जाता हे इसी प्रकार मैं प्रबल क्षमा अग्नि के द्वारा कर्मों के समूह को नष्ट करने में अपने आत्मा को सावधान रखूँगा। आत्मरुचि इतनी बढ़ी है ज्ञानी जीव के कि वह निरंतर अपने आत्मा की सावधानी का यत्न करता है। भेदविज्ञान की प्रवृत्ति होने से यह आत्मरुचि बनती है। जब तक जीव को अपने इंद्रिय के किसी साधन से या मन के किसी विषयसाधना से कुछ मौज मानने की बुद्धि रहती है तब तक आत्मा की धुन नहीं बनती। इन 6 विषयों से कुछ भी प्राप्ति रहती है तो आत्महित की रुचि नहीं रहती। जब कभी ऐसी बात आये कि मन नहीं लगता आत्महित में, चित्त नहीं लगता, उपयोग आत्मस्वरूप को ग्रहण नहीं करता, कितना ही प्रयत्न करते हैं पर अपना परमात्मस्वरूप अपनी दृष्टि में नहीं रह पाता तो इसका कारण यह समझना चाहिए कि इन 5 इंद्रियाँ और छठा मन―इन 6 विषयों में कहीं कुछ रुचि और पड़ी हुई है। स्पर्शन इंद्रिय के विषयों में रुचि क्या? मोटे रूप से तो यों कहते हैं कि ठंडे-गरम आदिक स्पर्श की रुचि रहना। जो कुछ भी भला लग रहा है इन इंद्रियों के कारण उसे कठोर रूप से देखा जाय तो वही बरबादी का कारण बन रहा है। कोई इंद्रियविषय की रुचि पड़ी हुई हो तो आत्महित में चित्त नहीं जमता। रसना इंद्रिय के विषयों में आसक्त होना, अच्छा-अच्छा स्वादिष्ट खाने-पीने की रुचि करना यदि ये बातें चलती हैं तो इससे आत्महित की रुचि नहीं बनती। इसी प्रकार घ्राणइंद्रिय के विषय में देखो―लोग कितनी-कितनी तरह के इत्रफुलेल लगाने की बात चित्त में रखते हैं, इन वास सुवास की वासना में भी आत्महित की बात चित्त में नहीं आती। नेत्र इंद्रिय के विषय में देखो―सिनेमा-थियेटर आदि देखने की बात मन में बनी रहती, सुंदर-सुंदर रूप देखने की आकांक्षा बनी रहती, ऐसी हालत में आत्महित की बात कहाँ से आये? यही हाल कर्णेंद्रिय का है। राग रागिनी की बात सुनने को चित्त बना रहता है, ऐसी स्थिति में आत्महित की बात सुनने की आकांक्षा चित्त में नहीं जमती। आत्महित की धुन नहीं बन पाती। इसी तरह मन का विषयहै। इसमें प्रधान विषय यह है कि अपनी नामवरी की चाह होती है। दुनिया में अपना ख्यापन करना, लोग मुझे समझें इस प्रकार की भीतर में जो आकांक्षा है वह आत्महित में प्रबल बाधक है। यों समझिये कि पूरा इस आत्मस्वरूप को ढके हुए परिणाम है। जिनका इन विषयों में परिणाम बना रहता है उसको यह नहीं सूझता कि संसार क्याहै और यह मैं पर्याय वाला भी हूँ क्या? ये सब विनाशीक ठाठ हैं, ये लोग भी कर्मों के प्रेरे नाना गतियों में भ्रमण करते हुए आज मनुष्यजीवन में आये हैं। ये भी नष्ट होंगे, इनका भी मरण हो और यह मैं जो मनुष्यभव में आया हूँ इस भव का भी मरण होगा। और मिलेगा कुछ नहीं। यों समझ लीजिए जैसे कहावत है कि सूत न कपास जुलाहा से लट्ठमलट्ठा। यहाँ तत्त्व की बात बाहर में है कुछ नहीं और उन ही बाह्यपदार्थों से सुख की आशा करके उन ही के पीछे परेशान हो रहे हैं। जो परपदार्थों से कुछ चाह रहे हैं उनको इस आत्मस्वरूप का मर्म कैसे मालूम पड़े? वह ज्ञानी धन्य है जिसने ज्ञानबल से अपने आपके इस प्रकाश को पा लिया है, इस आनंद को पा लिया है। जिसके कारण अब महत्त्व की, नामवरी की, उसके कोई आकांक्षा नहीं रही है। वह ज्ञानी चिंतन करता है कि कब वह क्षण होगा जब मैं प्रबल ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा कर्मों का शोधन करूँगा और अपने आत्मा को शुद्ध बनाऊँगा। आत्मशुद्धि में यह ध्यान प्रबल साधक है। जहाँअपने आपकी यह प्रतीति हुई कि यह मैं सहज ज्ञानस्वभावमात्र हूँ अन्य कोई मेरा रूप नहीं, इस मुझ का कोई पहिचाननहार नहीं, इस मुझ सत्य स्वरूप को कोई जानता नहीं। तो किसको क्या बतानाहै? इंद्रिय और मन से रहित होकर अपने स्वभाव के निकट आकर अपनी रक्षा करना चाहिए। यद्यपि पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से बड़ी विकट समस्या है, मन नहीं लगता, चित्त नहीं जमता। कितनी ही जगह चित्त पहुँचता, फिर-फिर कर विषयों में चित्त जाता है, उसका फल क्या है कि बहुत-बहुत हैरान हो जाते हैं। कर्मों के भार से वे जीव बहुत-बहुत दबे हुए हैं फिर भी इन कर्मों से छूटकर अपना उत्थान करें यह बात चित्त में नहीं आती। अनादिकाल से इस जीव की बरबादी ही रही। फिर भी कल्याण का उपाय किए बिना आत्मा का हित नहीं है। मैं कब प्रबल धर्मध्यानरूपी अग्नि के द्वारा इन कर्मों से छूटूँगा और अपने आत्मा को शुद्ध बनाऊँगा, ऐसा यह अपायविचय धर्मध्यान में ज्ञानीपुरुष चिंतन कर रहा है।