वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1656
From जैनकोष
चारित्रमोहपाकेन नांगिभिर्लभ्यते क्षणम्।
भावशुद्धया स्वसात्कर्तु चरणस्वांतशुद्धिदम्।।1656।।
अब मोहनीय कर्म का दूसरा भेद है चारित्र मोहनीय कर्म। इसके उदय से यह प्राणी चारित्र की शुद्धता को प्रकट नहीं कर पाता। चारित्र का जो मोहनीय कर्म विध्वंस करे उसे चारित्रमोह कर्म कहते हैं। जैसे बहुत से लोग प्रश्न करते हैं कि हम जान तो सब गए पर उसमें हम मन क्यों नहीं लगा पाते तो उत्तर उसका यह है कि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम है। मानो प्रतीति सहित जान गए हों तो सम्यग्दर्शन हो गया मगर अभी रागद्वेष लगे हुए हैं जिससे कि यह पथ में नहीं लग पाता। जिस पथ को हम सामान्य रूप से समझें तो रागद्वेषमोह ये तीनों जीव की बरबादी के कारण हैं। सो मोह तो बनता है दर्शनमोह के उदय से और रागद्वेष बनते हैं चारित्रमोह के उदय से। जब चारित्रमोह का उदय है तो मन शुद्ध नहीं रह सकता। भावशुद्धि नहीं रहती। आत्मा में कुछ भी वैराग्यता का अनुभव नहीं कर पाता चारित्रमोह के उदय में।