वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1659
From जैनकोष
नरायुषु: कर्मविवाकयोगान्नरत्वमासाद्य शरीरभाज:।
सुखासुखाक्रांतधियो नितांतं नयंति कालं बहुभि: प्रपंचै:।।1659।।
जीव के साथ बंधे हुए 8 कर्मों में से आयुकर्म का यहाँ वर्णन चल रहा है। आयु कर्म के 4 प्रकार हैं―नारक आयु, तिर्यंच आयु, मनुष्य आयु और देव आयु। जिनमें से देव आयु नाम के उदय से नाना सुखों के साधन वाले शरीर में जन्म होते हैं, वह एक पुण्य का फल है। लेकिन उस पुण्यफल में आसक्त होने वाले जीव अपना इतना बिगाड़कर लेते हैं कि स्वर्ग छोडकर वे एकेंद्रिय तक में जन्म लेते हैं। अब इस छंद में मनुष्य आयु के उदय का वर्णन चल रहा है। यह जीव मनुष्य आयु नामक कर्म के उदय से मनुष्यभव को प्राप्त होता है, तो यह मनुष्यभव कुछ तो सुखरूप है, कुछ दु:खरूप है। जैसे कि देव शरीर सुखरूप ही है। भले ही उनको मानसिक दु:ख हो जाते हैं, मगर उन देवतावों को शारीरिक दु:ख नहीं है। उनका वैक्रियक शरीर है, उनके कंठ से अमृत झरता है, क्षुधा, तृषा रोग आदिक की बाधाएँ नहीं हैं, पर मनुष्यों को बाधाएँ भी हैं और कुछ सुखसाधन भीहैं, वैभव भी हो, आजीविका का साधन भी हो लेकिन शरीर भूत बात को कौन मेटे? जीर्ण होगा ही। चाहे सेठ हो चाहे गरीब हो बाधा तो एक सी होती है। तो मनुष्यभव में एक सुख भीहै कुछ तो दु:ख भीहै। ऐसे नाना प्रकार के प्रपंचों से यह मनुष्य काल यापन होता है।
एक किंबदंती है कि एक बार ब्रह्मा ने 4 जीव बनाये, कोई बनाता नहीं है मगर एक शिक्षा लेने के लिए यह किंबदंती कही जा रही थी। तो वे चार जीव थे उल्लू, गधा, कुत्ता और आदमी। उन चारों को 40-40 वर्ष की आयु दे दी। पहिले उल्लू से कहा जावो तुम्हें पैदा किया।....महाराज काम क्या होगा?....अरे काम क्या, अंधे बैठे रहना, कभी कुछ खाने को मिल गया तो खा लेना।....महाराज काम तो बड़ा बुरा दिया। महाराज उमर?....उमर 40 वर्ष।....महाराज उमर तो कुछ कम कर दो।....अच्छा जावो आधी काटकर 20 वर्ष की उमर कर दी।20 वर्ष की उमर काटकर अपनी तिजोरी में रख लिया। फिर कुत्ते से कहा जावो तुम्हें पैदा किया। महाराज काम?....अरे काम क्या, जो तुम्हें रोटी का टुकड़ा दे दे उसके आगे पूंछ हिलाना, उसके यहाँ पहरा देना।...महाराज काम तो बड़ा बुरा दिया।...महाराज उमर।....उमर 40 वर्ष।....महाराज उमर तो कम कर दो।....अच्छा आधी काटकर 20 कर दिया।....20 वर्ष की उमर अपनी तिजोरी में रख ली। गधे को बुलाया और कहा जावो तुम्हें पैदा किया।....महाराज काम?....अरे खूब बोझा ढोना और सूखा-रूखा भूसा मिल जाय उसे खा लेना।....महाराज काम तो बुरा दिया। उमर तो कुछ कम कर दो। उसकी भी 20 वर्ष की उमर कर दी।20 वर्ष काटकर अपनी तिजोरी में रख लिए। मनुष्य से कहा जावो तुम्हें पैदा किया। महाराज काम? अरे खूब बचपन में खेलना, जवानी में विवाह करना, खूब राज्य भोगना, पुत्रों को खिलाना, मौज करना। काम तो बहुत अच्छा है, पर ऐसी सुख की जगह भेज रहे हो तो कुछ उमर और बढ़ा दो। सो तीनों पशुवों की 60 वर्ष रखी हुई उमर मनुष्य को दे दी। अब मनुष्य की उमर हो गयी 100 वर्ष। इस किंबदंती से शिक्षा क्या मिलती है सो देखो―ईमानदारी की उमर है40 वर्ष की। सो 40 वर्ष तक कितना आराम में रहता है यह मनुष्य।40 वर्ष के बाद भी आयी गधे की उमर। सो 40 वर्ष से 60 वर्ष तक गधे की तरह जुटता है। लड़का लड़कियों की शादी ब्याह पढ़ाई लिखाई के पीछे खूब बोझा ढोता फिरता है और जो कुछ रूखा सूखा मिल गयासो खा लेता है। 60 वर्ष से 80 वर्ष तक की उमर है कुत्ते की, सो बूढ़ा हो चला, जिस लड़के ने पूछ की, रोटियाँ खिलायी उसकी बड़ी हूँ हजूरी करता है। 80 वर्ष से 100 वर्ष तक हे उल्लू की उमर। सो यह मनुष्य अंधा सा बन जाता है, सारी इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हैं। किसी ने कुछ खिला दिया तो खा लेता है, नहीं तो अंधा सा बना बैठा रहता है। तो यह मनुष्यभव की बात बतला रहे हैं कि यहाँ दु:ख-सुखदोनों हैं। प्रपंचों से भरा हुआ यह मनुष्यभव है। छल-कपट, बेईमानी, चुगली, न जाने क्या-क्या नटखट इस मनुष्य में लगे हैं? एक ओर तो यह बात है मनुष्यभव में, दूसरी ओर यह भी बात है कि संयम भी इसी मनुष्यभव में पाल सकते, सम्यक्त्व भी इसी मनुष्यभव में प्राप्त कर सकते। निर्वाण भी इसी मनुष्यभव से पा सकते। ये मनुष्य जो सुख-दु:ख भोगते हैं उनमें साता वेदनीय, असाता वेदनीय, मोहनीय इन सब कर्मों का सहयोग है। यह मनुष्य आयुकर्म इस जीव को मनुष्य शरीर में रोके रहता है। आयुकर्म का काम सुख-दुःख देना नहीं है, मगर आयुकर्म का काम है शरीर में इस जीव को रोके रहना। और इसी शरीर के कारण नाना प्रकार के दु:ख होते हैं।जैसे नारकीय आयुकर्म के उदय से यह जीव दु:ख भोगता है ऐसे ही मनुष्य आयुकर्म के उदय में यह जीव मनुष्य बनता है, और कभी सुख व कभी दु:ख भोगता है। ज्ञानी जीव इन सबको परभाव समझता है। यह शरीर से रागादिक भाव ये सब परभाव हैं। संकल्प विकल्प चलना भी परभाव है। ये सुख और दु:ख जो कल्पना से माने जा रहे हैं वे भी परभाव हैं, पर तत्त्व हैं। इन सबसे निराला चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व मैं हूँ―ऐसी ज्ञानी की सुधि हे और इसके बल से वह हर्ष की बात में हर्षित नहीं होता और विषाद वाली बात में विषाद नहीं मानता।