वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1694
From जैनकोष
ध्रायंते पूतयोगंधा: स्पृशयंते वज्रकंटका:।
जलानि पूतिगंधानि नघोऽसृग्मांसकर्दृमा:।।1694।।
नरकभूमियों की घोर दुर्गंध का महाकष्ट―जिस नरकभूमि में दुर्गंध सूंघनी पड़ती है और वज्रमय कांटों से छिदना पड़ता है, जहां शरीर दुर्गंधमय है, जहां सर्प, बिच्छू आदिक भयंकर जीव हैं, ऐसा घोर दु:खों का घर जो नरक है वहाँ पर यह नारकी जीव जन्म लेता है। बड़े आरंभ परिग्रहों में इस जीव ने अपना चित्त रमाया था, पाप पाप में ही उसकी विशेष प्रवृत्ति थी, कृष्ण लेश्या के वशीभूत होकर इस नरक गति में आया और यहाँ से घोर दु:ख सहने पड़े, इस प्रकार का चिंतन कर रहा है ऐसा नारकी जो कि उन नारकियों में कुछ विवेक रखता है। उन नरकों का जल दुर्गंधमय है, मांस, रुधिर का कांदा है जिसमें ऐसी नदियां बहती हैं।