वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1695
From जैनकोष
चिंतयंति तदालोक्या रौद्रमत्यंतशंकिता।
केयं भूमि: क्व चानीत: के वयं केन कर्मणा।।1695।।
दु:खपीड़ित नारकियों का चिंतन―उस नरक में वे नारकी जीव रौद्र भयानक स्थान पाते हैं, अत्यंत शंकित होकर विचार करते हैं कि अरे यहाँ कहां आ गए? कोई लोग अलंकार में यों बताते हैं कि जैसे जब मनुष्य उत्पन्न होता है तो वह यों शब्द बोलता है―कहां, कहां, कहां। वह इसी बात से संगत है कि मैं किस जगह आया। तो ऐसे ही वह नारकी जीव चिंतन करता है कि मैं कहाँ आया। जब उतने दु:ख कभी देखा नहीं, भोगा नहीं तो झट वह चिग्घाड़ पड़ता है अरे मैं किस जगह आया, यहाँ कोई मेरी रक्षा करने वाला भी है क्या? यों बोलता है, पर उसको वहाँ शरण कुछ नहीं मिलता है। ऐसे नारकी जीव के उदय में हम आप सागरों पर्यंत आयु पाकर अपना समय दु:ख ही दु:ख में गुजारते रहते हैं। ऐसा जानकर संसार शरीर और भोगों से विरक्त अवश्य होना चाहिए और ज्ञानबल बढ़ाकर अपने स्वरूप पर दृष्टि देकर अपने आपको सबसे निराला केवल ज्ञानमात्र अनुभवना चाहिए, अन्यथा इस संसा रमें कोई भी अपना शरण न होगा और दु:ख ही दु:ख में अपना समय व्यतीत करना होगा। अपना परिणाम निर्मल न रखें, इस प्रकार की अहिंसामय चर्चा हो तो फिर वहाँ किसी भी प्रकार के संकट नहीं बसते और फिर जन्म मरण के दु:ख नहीं सहने पड़ते हैं।