वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1697
From जैनकोष
तत:प्रादुर्भवत्युच्चै: पश्चात्तापोऽपि दु:सह:।
दहंतविरतं चेतो वज्राग्निरिव निर्दय:।।1697।।
कृतपाप के फल के स्मरण में नारकियों का पश्चात्ताप―इसके बाद नारकी जीवों को ऐसा कठिन दु:सह पश्चाताप प्रकट होता है कि जो संताप वज्राग्नि के समान निर्दय होकर चित्त का दहन करता हुआ इसे दु:खी करता है। जैसे कोई यहाँ भूल कर जाय तो भूल तो कर चुका, उस भूल के बाद उसे बड़ा पश्चाताप होता है और चित्त में दाह उत्पन्न होती है कि मैंने कैसी कठिन भूल कर दी, इसी तरह यहाँ समझो कि यह प्राणी भूल तो कर गए, असंयम में रहे, नाना प्रकार के खोटे व्यसनों में रहे, अपनी सुध से बिल्कुल दूर रहे, निर्दयता बसी, रौद्रध्यान बना, भूल तो की, उसके फल में यह जीव नारकी बनता है, ऐसी नरकगति में यह दु:सह क्लेश भोगता है। वहाँ एक नारकी दूसरे को मारने के लिए कहीं बाहर से कोई शस्त्र नहीं लाता, हाथ उठाया और जैसे संकल्प किया कि मैं तलवार मारूं तो हाथ ही तलवार बन जाता है। यह एक उनकी खोटी विक्रिया है। किसी दूसरे नारकी को सांप, बिच्छू बनकर सताना है ऐसी भावना बनी तो झट वे सांप, बिच्छू आदि बनकर उसे सताने लगते हैं। जहां की भूमि इतनी दु:सह वेदना वाली है कि बताया है कि सहस्र बिच्छू भी डसे तो भी उतनी वेदना नहीं होती जितनी वेदना नरक की भूमि को छूने मात्र से होती है। जहां नारकियों को एक दाना भी नहीं मिलता, और भूख इतनी है कि सारी भूमि का अनाज खा लें तो भी भूख नहीं मिटती। बताओ यहाँ तो रात्रि का ही भोजन नहीं छोड़ सकते, दिन में एक दो बार अच्छी तरह खाकर भी बिना खाये रात काटी नहीं कटती। एक कल्पना ऐसी लोगों की बन गई है कि दिन ही दिन खाने का समय नहीं मिलता, कुछ परिस्थिति ऐसी हैं कि जिनके कारण रात्रि को खाना ही पड़ता है। अरे यह बात उनकी ठीक नहीं है। एक बात तो यह है कि दिन में एक दो बार अच्छी तरह खा लेने पर फिर खाने की कोई जरूरत ही नहीं रहती, स्वास्थ्य में कोई कमी आती नहीं, बल्कि दिन में एक दो बार खाने पर स्वास्थ्य अच्छा रहता है। रात दिन कई बार खा पीकर तो स्वास्थ्य और बिगड़ जाता है। बाजार की सड़ी गली चीजें, दही, जलेबी, रबड़ी आदि अभक्ष्य चीजें सर्वदा त्यागने योग्य हैं, जिन चीजों में त्रस जीवों का घात होता है ऐसी चीजें सर्वदा त्याज्य हैं। लोग तो रात दिन जो चाहें सो खाते पीते रहते हैं उस खाने पीने में बड़ा मौज मानते हैं वह खाना पीना छोड़ नहीं सकते, लेकिन ऐसे असंयम के फल में, ऐसी खोटी वासनाओं के फल में नरकगति में जन्म हो गया तो फिर वहाँ क्या हाल होगा? अभी जरा पुण्य का उदय है सो जरा भी कष्ट नहीं सहा जाता। यहीं देख लो अनेकों मनुष्य जिनके पाप का उदय है सभी दु:ख पाते हैं। तो जैसे वे मनुष्य हैं ऐसे ही ये पुण्य वाले मनुष्य हैं। हाथ, पैर, पेट, पीठ आदि सब एक से हैं एकसा ही सभी का जन्म और मरण होता है। यहीं देख लो मनुष्य कष्ट पाते कि नहीं। पुरुष के उदय में मौज मानने की धुनि ऐसी बनी हुई है कि बड़े नखरे करते हैं, जरा भी दु:ख नहीं सहन कर सकते, संयम साधना नहीं कर सकते। उसके ही फल में नरकगति में जन्म होता है और उनके चित्त में ऐसी दाह पैदा होती है जैसी कि वज्राग्नि की दाह पैदा होती है।