वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 170
From जैनकोष
वार्द्धेरंत: समादत्ते यानपात्रं यथा जलम्।
छिद्रैर्जीवस्तथा कर्मयोगरंध्रै: शुभाशुभै:।।170।।
दृष्टांतपूर्वक आस्रवस्वरूप का विवरण―जैसे समुद्र में रहने वाले जहाज में छिद्रों के द्वार से जल का ग्रहण होता है इसी तरह यह जीव शुभोपयोग अशुभोपयोगरूपी छिद्रों से शुभ और अशुभ कर्मों को ग्रहण करता है। जहाज चल रहा है पानी में, उसमें कहीं छिद्र हो जायें तो उन छिद्रों के द्वार से पानी नाव में आता है और पानी के आने से नाव डूब सकती है, ऐसे ही इस जीव में शुभोपयोग और अशुभोपयोग के छिद्रों से शुभ और अशुभ कर्म आते हैं और इन शुभ अशुभ कर्मों के बोझ से यह जीव संसार में डूब जाता है। आस्रव का अर्थ ‘आना’ है पर एक ऐसे विशिष्ट प्रकार के आने में आस्रव का प्रयोग होता है। जैसे कि किसी जमीन में से सूक्ष्म नाना छिद्रों से झिरकर पानी आता है तो ऐसे आने वाले पानी के लिए आस्रव का प्रयोग हो सकता है और एकदम सीधा ही प्रवाह रूप से आने में आस्रव का प्रयोग नहीं होता। यों ही जीव के समस्त प्रदेशों में जीव के ही शुभ-अशुभरूप सूक्ष्म छिद्रों से जो कर्मों का आगमन होता है उसका नाम है आस्रव।
आस्रव का फल और साधन―आस्रव का फल क्या होता है? वह है यह समस्त संसार। चारों गतियों में जन्म ले लेकर यह जीव शुभ-अशुभ कर्मों का फल भी तो पाया करता है। आस्रव तत्त्व हेय है। आस्रव का मूल द्वार अशुद्ध भाव है। उस अशुद्ध भाव के दो प्रकार हो गए―एक शुभ भाव और एक अशुभ भाव। हैं दोनों ही अशुद्ध भाव। शुद्धभाव तो रागद्वेष रहित केवल चैतन्यप्रकाश ही है। जहाँ किसी भी प्रकार का राग अथवा द्वेष का अंश समन्वित है वह भाव अशुद्ध भाव है। अशुद्धभाव होने पर भी शुभ भाव से तो पुण्य का आस्रव होता है और अशुभभाव से पाप का आस्रव होता है। हम आप अपने इस रात दिन के 24 घंटों में कितना तो शुभ भाव करते हैं और कितना अशुभभाव करते हैं और कितनी शुद्ध स्वरूप पर दृष्टि दिया करते है? इन तीन बातों का तो निरीक्षण अवश्य करना चाहिए। और फिर निरीक्षण में निरख लो कि हम शुभभाव कितने अंशों में करते है।
आस्रव में अपध्यान की विशेषता―एक अपध्यान नामक अनर्थदंड है जिसका अर्थ यह है कि आत्मा का कुछ प्रयोजन भी जहाँ नहीं सधता। प्रयोजन है इसका इस शरीर के रखने के लिए आजीविका का और आत्मकल्याण के लिए धर्म में सावधान रहने का। केवल दो ही तो प्रयोजन है। यद्यपि मनुष्य की कलायें 72 मानी गयी हैं किंतु उन कलाओं में दो ही सरदार कलायें हैं―एक तो आजीविका और दूसरी जीव उद्धार। तो दोनों प्रयोजन जहाँ नहीं है और फिर भी उसका बहुत ध्यान किया जाना चिंतन किया जाना वह सब अपध्यान है। जैसे दूसरे का वध विचारना, नुकसान विचारना, छेदन, भेदन, विनाश, नुकसान विचारना, बुरा विचारना, ईर्ष्या करना, दूसरे के काम बिगाड़ना, धर्म में विघ्न डालना जिनसे अपना कोई प्रयोजन नहीं सधता और फिर अटपट काम किए जायें, चिंतन किया जाय तो वे सब अपध्यान है। इसको भी निरख लो कि हम अपध्यान कितने अंशों तक करते हैं?
अपध्यान की नितांत व्यर्थता―संसार में सभी जीव अपने से अत्यंत भिन्न हैं। हमारे विचारने से किसी दूसरे का नुकसान बनता नहीं है अथवा दूसरे लोग मेरे बारे में कुछ बुरा विचार रक्खें तो उससे मेरा कुछ बनता नहीं है। जैसे कौवा के अटपट कोसने से गाय नहीं मरती, ऐसे ही हम आप किसी के बारे में कितना ही अनर्थ और उसके विनाश की बात सोचें तो हमारे सोचने से उसका बिगाड़ नहीं होता। वहाँ तो जो कुछ होना है वह होता है उसके उदय के अनुसार ही। कदाचित् आपके खोटे चिंतन के अनुसार दूसरे का बिगाड़ भी हो जाय तो आपके चिंतन के कारण बिगाड़ उसका नहीं होता, किंतु उसका ऐसा ही पाप का उदय आया था तो उसको फल मिलने में कोई तो निमित्त बनता। आप न निमित्त बनते तो अन्य कोई निमित्त बनता। तो जब हमारे विचार के कारण दूसरों का कुछ बिगाड़ नहीं होता और हम बुरा विचार करें तो अपने आपमें ही पाप का बंध कर रहे हैं। अब जिम्मेदारी समझना चाहिए अपनी। हम क्यों ऐसा काम करें कि जिससे हानि ही हानि हमें उठानी पड़े। दूसरों का बुरा चिंतन करने से हानि ही हानि उठानी पड़ती है। तत्काल दु:ख भोगा और उसी व्यवहार के कारण दूसरे से उपद्रव भी आयेंगे, उन्हें भी भोगेगा और कर्मबंध होने से दुर्गति में जन्म होगा, वह भी क्लेश भोगना पड़ेगा।
प्रवृत्तियों में लाभ हानि का ईक्षण―पर के अनिष्टचिंतन से विपत्तियाँ तो कितनी ही आती हैं लेकिन लाभ की बात बताओ। दूसरे का बुरा विचारने से, ईर्ष्या रखने से विघ्न करने से खुद को लाभ कितना होता है? इस पर भी दृष्टिपात करें। लाभ तो कुछ मिलता नहीं, पर सारे नुकसान ही नुकसान होते हैं, यह बात सुनिश्चित है। अपध्यान अथवा अन्य खोटे कार्य इन सबमें अपना कितना समय व्यतीत होता है और अर्हद्भक्ति, गुरुसेवा, दान, परोपकार, दया आदिक परिणामों में कितने क्षण व्यतीत होते हैं? इसकी तुलना करो और साथ ही यह भी निरख लो कि किसी क्षण हम कितने अंशों में एक शुद्ध निज अंतस्तत्त्व की ओर लगे रहने के लिए भावना बनाते हैं, इन तीन बातों की परख कीजिए तो सही, आपको आपकी गलती दिख जाय, यह भी एक बड़ा शुभ काम है, अच्छे होनहार का सूचक है।
मोह का अपराध―संसार के सभी जीव इतनी मोटी गलती कर रहे हैं, जैसे कि वैभव है प्रकट भिन्न, पर यह तो मेरा सर्वस्व ही है, इससे ही मुझे शांति है, इससे ही मेरा उद्धार है, इस प्रकार का आशय बना रहे हैं। यह कितना मोटा अपराध है पर इस अपराध को मानने वाले लोग हैं कितने? कितने पुरुषों के चित्त में यह बात समायी हुई है कि मैं मोह का कितना विकट अपराध कर रहा हूँ, इस पर कितना बड़ा खेद हो रहा है। अपनी गलती अपने को विदित हो जाय यह भी एक सुधार का कदम है। तो शुभ अशुभयोग रूप छिद्रों से यह जीव शुभ अशुभ कर्मों को ग्रहण करता है, यही आस्रव है, यह आस्रव दु:खदायी है। अहितरूप है, इससे बचने के लिए शुभ अशुभ भावों को रोके।
ऐसा करने के लिए शुद्ध निजस्वरूप का परिज्ञान बनाये रहें तो इससे इस आस्रव पर हमारी विजय होगी और मोक्षमार्ग में निर्बाध चल सकेंगे।