वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1732
From जैनकोष
उत्पाटयंति नेत्राणि चूर्णयंत्यस्थिसंचयम्।
दारयंत्युदरं क्रुद्धास्त्रोटयंत्यंत्रमालिकाम्।।1732।।
नारकियों द्वारा नारकियों के दुःख का चित्रण―वे पुराने नार की उस विलाप करते हुए नये नारकी के नेत्रों को उखाड़ लेते हैं, उनके ऐसे वैक्रियक शरीर के अंग हैं कि वे अपने हाथ को जो चाहे सो बना डालते हैं । जैसे शेर का पंजा बनाना है तो उनका हाथ ही पंजा बन जाता है । उन्हें कोई शस्त्र चाहिए तो उनका हाथ ही शस्त्र बन जाता है । जैसे देख लो―मनुष्य लोग अपने ही हाथ की कितनी ही चीजें बना लेते हैं, पकड़ने की रस्सी बना लें, मारने के लिए गदा बना लें, टेढ़ा कर के हाथ मारें तो कहो तलवार जैसी चोट ला दें, अंगुलियों से चोट ले तो कहो चींटी बना लें, इसी हाथ से कटोरा, चम्मच आदिक काम ले लें तो जैसे यहाँ ही मनुष्य लोग अपने हाथ के कई आकार धारण कर सकते हैं, इसी प्रकार वे नारकी अपनी विक्रिया से अपने हाथ के ही अनेक शस्त्र बना लेते हैं । विक्रिया से उनके हाथ बढ़ते भी तो हैं, उन्हें मारने के लिए किसी शस्त्र की जरूरत हुई तो वह शस्त्र उन्हें कहीं बाहर से नहीं लाना पड़ता, उनके ही हाथ वह शस्त्र बन जाते हैं । जैसे किसी नारकी को किसी नारकी का सिर कुल्हाड़ी से काटना है तो हाथ उठाते ही वह हाथ कुल्हाड़ी बन जाता है । तो एक नारकी दूसरे नारकी को देखकर क्रोध में आकर उसकी आंखों को उखाड़ लेता है। कोई नारकी हड्डियों को चूर्ण-चूर्ण कर डालते हैं, उदर को फाड़ डालते हैं और अत्यंत क्रुद्ध होकर उस नारकी की आँतों को तोड़ डालते हैं । नारकियों के भी वैक्रियक शरीर हैं और देवो के भी पर इन दोनों के वैक्रियक शरीरों में बहुत अंतर है । देवों को भूख प्यास ही नहीं लगती, हजारों वर्षों में जब कभी भूख प्यास लगी तो उनके ही कंठ से अमृत झरता है जिससे वै तृप्त हो जाते हैं । और नरकों में भूख प्यास की इतनी तीव्र क्षुधा है कि सारा अन्न भी खा जावें फिर भी क्षुधा न मिटे, सारे समुद्र का जल पी जावें फिर भी तृषा न मिटे, लेकिन खाने को वहां एक दाना नहीं और पीने को वहाँ एक बूँद पानी नहीं । देवों के शरीर का घात नहीं किया जा सकता और नारकियों के शरीर के खंड-खंड हो जाते हैं, हालांकि वे नारकी बीच में मर नहीं सकते, इस कारण वे टुकड़े फिर मिल कर शरीररूप हो जाते हैं, वेदना वैसी ही होतीं है जैसी कि मनुष्यों को होती है । तो वे नारकी एक दूसरे पर क्रुद्ध होकर अपने ही हाथों को शेर के पंजे जैसा बनाकर दूसरे नारकी की आँतों को फाड़ डालते हैं । जैसे यहाँ एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखकर शांत नहीं रहता है भोंकता है, उस पर आक्रमण करता है, ऐसी प्रकृति है कुत्ते में और कुत्ते में यही बुरा अवगुण बताया है कि वे दूसरे कुत्ते को देखकर गुर्राते हैं, उस पर आक्रमण करते हैं तो ऐसे ही ये नारकी जीव भी दूसरे नारकी को देखकर क्रुद्ध होकर उस पर आक्रमण करते हैं । मनुष्य लोग तो यहाँ पर भी कुछ विरोध जंचने पर धैर्य धारण करते हैं पर वे नारकी रंच भी धैर्य नहीं धारण करते, एकदम ही दूसरे नारकी पर टूट पड़ते हैं । वे नारकी इतने समर्थ हैं कि दूसरे नारकी का जो चाहें सो कर दें । कहो छुरे से उसका पेट फाड़ दें, शस्त्र से गला काट दें अथवा अग्नि में जलाकर भस्म कर दें । अग्नि भी उन्हें कहीं बाहर से नहीं लानी पड़ती है । उनका ही शरीर अग्नि बन जाता है । तो वे नारकी जीव एक दूसरे को देखकर परस्पर में कलह करते हैं और एक दूसरे नारकी को दुःखी करते हैं ।