वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 174
From जैनकोष
अपवादास्पदीभूतसन्मार्गोपदेशकम्।
पापास्रवाय विज्ञेयमसत्यं परुषं वच:।।174।।
असत्यवचन से पापास्रव―पुण्यास्रव का वर्णन करके अब पापास्रव का वर्णन किया जा रहा है। निंदा का स्थान, असन्मार्ग का उपदेश, असत् कठोर कानों से सुनते ही जो दूसरों के कषायों को उबाल दे, उत्पन्न कर दे और जिससे पर का बुरा हो जाय ऐसे वचन असत्य हैं, कठोर हैं, कानों से सुनते ही सुनने वाले के चित्त में कषाय भाव को उत्पन्न करते हैं, इससे स्व और पर दोनों का बुरा होता है। ये वचन पापास्रव के कारण होते हैं। एक नीति काव्य में कहा है कि वचने का दरिद्रता। वचन बोलने में क्या दरिद्रता करनी? बुरा न बोले, भला ही बोल दिया तो आपका नुकसान क्या हुआ? बल्कि हित हुआ। धर्ममार्ग में रोड़ा अटकाने वाला यह असत्य वचन है। असत्य वचनों से स्वयं का भी अपवाद है और जिसके संबंध में बोला जाय उसका भी अपवाद है। जो बात व्यर्थ की है, अनर्थ की है, दुरर्थ की है वह तो विडंबना ही है। अपने आपको इतना संयत वृत्ति में नियमित रखना चाहिए कि कभी किसी उद्वेग का सामना न करना पड़े। कोई लेख लिखे कुछ उपदेश करे, कहीं बयान दे, कहीं समूह में समाज में कुछ बोलचाल करे तो वहाँ जो कम बोलने की नीति अपनाता है वह बहुत ही आपदाओं से बच जाता है। ही बहुत-बहुत बोलना भी एक दोष बता दिया गया है। जो अत्यंत अधिक बोलता रहता है उसके वचनों का संतुलन नहीं रह सकता है, क्योंकि बहुत बोले तो उसमें कभी कुछ भी वचन निकल सकते हैं, वे वचन फिर पीछे अपने शल्य के लिए बन जायेंगे। जो वचन असन्मार्ग का उपदेश करते हैं वे वचन पापों का ही आस्रव करते हैं।
असन्मार्ग के भाव और वचनों से पाप का आस्रव―भैया ! लोक में अनेक पापी जीवों को फलते फूलते सुखी होता हुआ देखकर चित्त में कमजोरी न लाना चाहिए। यह तो एक संसार का तरीका है, नमूना है। जिन वचनों से असत्यमार्ग का पोषण हो, वस्तुस्वरूप के विरुद्ध समर्थन हो वे सब असन्मार्ग के उपदेशक वचन हैं, इससे पाप का ही आस्रव होता है असत्य और कठोर वचन पापों का ही बंध किया करते हैं। कठोर वचन बोलने के लिए बहुत समय पहिले से संक्लेश परिणाम करना होता है और फिर कठोर वचन बोलकर यह बोलने वाला भी तो सुख शांति के वातावरण में नहीं ठहर सकता। आजकल अंतर्राष्ट्र में अथवा घर में, देश में, समाज में जितने विवाद कलह होते हैं उनमें प्राय: करके कठोर वचन बोलने का भाग बहुत अधिक रहता है। 90-95 प्रतिशत लड़ाईयाँ तो एक कठोर वचन बोलने के कारण बन जाती हैं। तो यों कठोर शब्द का प्रयोग भी पाप कर्मों का आस्रव कराता है ऐसे वचन पापास्रव के ही कारण हैं। सो हे भव्य जीवों ! इन असत्य वचनों को परित्याग करो। जो सत्य वचन हैं उनका आश्रय करो उन्हें ही बोलो। और उस ही नीति का अनुकरण करके अपनी प्रवृत्ति रक्खो।
मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्ति के निषेध का अनुरोध―संसार में कोई जीव मेरा सहायक न तो है और न होगा। सब कुछ हमें अपने ही परिणाम संभालकर अपना योग्य काम करना हैं यों अपने मन को, वचन को, खोटे विषयों में प्रयुक्त न करना और तत्त्वचिंतन में इनका उपयोग करना यह ही एक कर्तव्य है, इससे ही आस्रव भाव से हट सकते हैं। आस्रव तत्त्व हेय है, जन्मजाल में रुलाने वाला है, इससे छुटकारा पाने में ही अपना भला है। उसका उपाय अपने सहज स्वरूप की दृष्टि करना और ऐसा ही अपने को मानना है।